आपको अपने बचपन वाले जन्मदिन याद हैं ?वो आज कल के जन्मदिन से बहुत अलग हुआ करते थे। ये ख्याल मुझे अपने जन्मदिन पर आया जब मैं अपनी भतीजी से मिली। उसका नाम आस्था है। वो मुझे शुभकामनाएं देकर बोली, बुआ ! आप बर्थडे नहीं मनाओगी क्या ?"मैंने कहा, "नहीं आस्था ! टाइम कहाँ है ? सुबह से शाम तक…
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क्या आपने सुना है कि बिना बात करे दो लोगों में दोस्ती हो सकती है ? शायद नहीं ! लेकिन मेरी और सोनम की दोस्ती कुछ ऐसी ही थी।मैं और सोनम अभी एक दूसरे से वाक़िफ़ भी नहीं हुई थीं पर हमारी मुस्कुराहटें एक दूसरे से दोस्ती कर चुकी थीं। सुनने में अटपटा हैलेकिन ऐसा सच में हुआ, कैसे? इसके पीछे की कहानी बताती हूँ: मैं अभी एक पोस्ट ग्रेजुएशन की छात्रा हूँ और लॉकडाउन के कारण पिछले एक वर्ष से घर पर ही हूँ| पिछले काफी समय से हॉस्टल में रहने के कारण घर पर अकेले पढ़ने में मन ही नहीं लगता था।तो फिर मेरे पड़ोस की एक सहेली औरमैंने सोचा कि उसके घर साथ ही पढ़ लेते हैं।छोटे मोहल्लों में घर कितने चिपके हुए होते हैं न, शायद आपने देखे ही होंगे।एक घर कीछत से दूसरे का कमरा दिख जाता है और किसी का आँगन।ऐसे ही मेरी सहेली जिसके घर हम साथ पढाई करते थे उसकी घर की छतसे मेरी दूसरी सहेली बिट्टू का कमरा दिखता था।बिट्टू MA करके पढ़ाई छोड़ चुकी थी और अपनी सिलाई का काम करती थी और सिखाती भी थी। सुबह से लेकर शाम तक पढ़ कर जब मैं और स्नेहा थक जाते थे तो छत पर आकर चाय पीते हुए बिट्टू से बातें करते थे।रोज़ बिट्टू के घर एक लड़की आती थी, एक दम दुबली - पतली, सलवार सूट पहने, चोटी बनाये, कमरे के बाहर अपनी चप्पल निकालती ऊपर हमारी ओर देखा करती, मुस्कुराती और कमरे के अंदर चली जाती। पिछले 1-2 महीने से रोज़ यही सिलसिला चल रहा था, वो आती मुस्कुराती फिर मैं भी देखकर मुस्कुराती और वो अंदर चली जाती। उसका नाम भी बिट्टू से ही सुना था, जब वो बोलती, "हाँ, सोनम! आज कुर्ते पर कौन से डिज़ाइन का गला बनाना है।" सोनम कहती, "बिट्टू दीदी! कल देखो ये वाली डिज़ाइन ही ठीक से नहीं बनी थी, फिर से यही अच्छा करने की कोशिश करती हूँ। " ऐसे रोज़ ही बिट्टू और सोनम अपनी सिलाई की बातें करती थी। मैं रोज लगभग 30 मिनट बस सोनम को काम करते हुए देखती थी। वो होता है न कुछ लोगों पर नज़र अटक जाती है, कुछ वैसा ही हो रहा था। हमने दो महीने तक कोई बात नहीं की लेकिन दोस्ती मानों बड़ी पक्की हो गई थी।मैं मन ही मन सोचती कि सोनम से आज बोलूंगी कि तुम कितनी सुन्दर दिखती हो, ऐसे बाल बनाया करो, ये कपड़े पहनो और जँचोगी ।लेकिन फिर लगता कि वो अभी ही इतनी प्यारी दिखती है, उसको ये और साज-सज्जा क्या ही बताऊँ। कभी-कभी होता है कि कुछ लोगों की सौम्यता ही आपको आकर्षित कर लेती है।आज कल की फैशनेबल लड़कियों की चकाचौंध वाली दुनिया से देखने में बहुत साधारण।मैं ये नहीं कह रही कि आज कल का नया ज़माना अच्छा नहीं हैं, बस सोनम को देखकर वो चकाचौंध भी फीकी पढ़ गई थी।अब इतने दिन हो गए थे कि मेरे अंदर इच्छा थी सोनम से जाकर बात करने की, उसे जानने की।फिर एक दिन मैं अपनी पढाई करने के बाद बिट्टू के घर गई जब सोनम आने वाली थी।वहां बैठी और काफी देर तक सोनम को देखती रहीऔर बिट्टू से बातें करती रही लेकिन सोनम का ध्यान अपने काम से इधर से उधर न हो। अब बात तो शुरू करनी ही थी तो मैंने कहा, "सोनम! लगता है सिलाई बहुत पसंद है तुम्हे?" सोनम,"हाँ! दीदी, क्योंकि और कुछ नहीं कर पाई, तो जो है वही बढ़िया से मन लगाकर करती हूँ, देखो अच्छा गला बनाया है न कुर्तेका।" मैंने कहा, "हाँ! सुन्दर तो बहुत है, कभी मेरे लिए भी सिल देना।वैसे तुमने ये क्यों कहा कि कुछ नहीं कर पाई ? “मुझे यही मिला तो यही मन लगाकर करती हूँ?" सोनम, "मैं पढ़ना चाहती थी बाकी सभी बच्चों की तरह। " मैंने कहा, "अच्छा ! तो तुमने पढ़ाई नहीं करी ? मुझे तो लगा था तुम कॉलेज जाती होगी ! दिखती भी कुछ 17 - 18 वर्ष की हो।आजकल तो गांव तक में बच्चे पढ़ते हैं लड़के हों या लड़कियां, तुम क्यों नहीं पढ़ाई कर पाई ?" सोनम, "मेरे मम्मी-पापा ने रोका नहीं था। लेकिन आस-पास वाले मेरे गांव के लोग ,जहाँ मेरा घर है बस ताने देते रहते थे कि क्या करोगी पढ़कर, ससुराल ही तो जाना है। प्रकार-प्रकार के तंज कसते थे; ससुराल जाने के लिए डिग्री लोगी, माँ-बाप का फालतू खर्च करा रहीहो, भाई बड़े हो रहे हैं उन्हें पढ़ने दो।मेरे अंदर बहुत इच्छा थी पढ़ने की, जितने मन से आज सिलाई में दिमाग लगाती हूँ न वैसे ही फटा फट गणित के सवाल लगा दिया करती थी। मेरी कक्षा के तो लड़के भी इतने तेज़ बुद्धि के नहीं थे।लेकिन फिर वो ताने और कुछ मजबूरियां रहीं कि आज देखो वो साथ वाले कॉलेज में हैं और मैं सिलाई सीख रहीं हूँ, और इधर शहर में रहकरभाई-बहनों के लिए खाना बनाती हूँ, वो स्कूल जाते है।अब ससुराल जाने के लिए सिलाई और घर का काम काफी तो है। हैं न दीदी! आपको लग रहा होगा मैं बेचारी हूँ पढ़ नहीं पाई। हैं ना ? लेकिन ऐसा बिलकुल भी नहीं है मुझे भी लगा था कि शायद मुझे इसमें वो ख़ुशी नहीं मिलेगी मगर आज मैं उतने ही मनसे सिलाई करती हूँ जैसे पहले पढ़ती थी।आप भी तो देखो इतना पढ़ रही हो, नौकरी करोगी, क्यों? क्योंकि आज कल शहरों में नया चलन जो है, नौकरी वाली लड़की चाहिए।हमारे गांव में अभी ये ट्रेंड आया नहीं है, बिना नौकरी के भी जा सकते हैं ससुराल।और कामकोई भी हो आपकी पढाई या फिर मेरी सिलाई, सही से मन लगा कर करो तो दोनों के जरिये पैसे कमाए जा सकते हैं।आप किसी औरके यहाँ नौकरी करोगी, मैं तो मेरा खुद का छोटा सा शोरूम खोलूँगी जैसे शहर में होते हैं न फैशन के बूटीक। मेरा तो मानना है जो किस्मतने तय किया है उसमें खुश होना चाहिए।अब इस बात का दुःख मानती रहूं कि कुछ कारणों की वजह से पढ़ाई के ख्वाब पूरे नहीं कर पाई।उससे बेहतर है सिलाई के नए ख्वाब बुनकर उन्हें पूरा कर लूँ और अच्छे से करुँ और सारी लड़कियों की तरह ये सोचकर खुश रहूं किस सुराल जाना है। मानों या न मानों, ज़्यादा पढ़ी-लिखी हो या फिर कम, हर लड़की की ख्वाहिश में ससुराल तो होता ही है! क्यों दीदी ?" सोनम की बातें सुनकर मैं ज़्यादा कुछ बोल ही नहीं पाई बस उससे इतना कहा कि, "अगर सब तुम्हारी तरह अपने अच्छे-बुरे हालात में भी खुशियां ढूंढ़ना और जीना सीख जाएं और आने वाले भविष्य के लिए इतने सकारात्मक हों, तो सबका जीवन कितना आसान हो जाएगा।" उस दिन मुझे सोनम से बात करके बहुत सुकून सा मिला।जो साधारण सी मुस्कुराहट की दोस्ती दो महीने चली और फिर जो बातें हुईं उन्हें आपसे साझा करनेका बस यही मक़सद था कि मैं आपको बता सकूँ कि कैसे उसकी कहानी ने मुझे एक सरल, संतुष्टऔर सुखी जीवन की परिभाषा समझा दी।
मैं तो सोच भी नहीं सकती थी कि सुबह 5 बजे मेरी आँख खुल जाए। इतनी सुबह उठने के लिए एक या दो नहीं बल्कि लगातार चार से पांच अलार्म लगा कर सोना पड़ता था या फिर कोई दो- चार आवाज़ लगाए। सारे नहीं लेकिन मैंने अपने अधिकांश दोस्तों के साथ ऐसा ही होते देखा है।फिर मैं अक्सर सोचा करती…
क्या आपको याद है कि आखिरी बार आपने अपने परिवार के साथ बैठकर फ़िल्म कब देखी थी?ज़रा याद कीजिए ! थोड़ा ज़ोर डालिए।बहुत ही कम लोग होंगे जिन्होंने घर के कमरे में टीवी पर एक पारिवारिक फ़िल्म का आनंद लिया होगा। निःसंदेह, उस आनंद की अनुभूति अवर्णनीय है। इसलिए सोचा कि आप सभी को उस अनुभूति का एहसास यह लेख…
बचपन में गर्मियों की छुट्टियां आना और नई - नई कहानियॉं सुनना इन सब का अपना ही मज़ा था। मैं हर साल गर्मियों की छुट्टियों में अपनी बुआ के घर बड़ोदा जाती थी। पापा अक्सर मुझे छुट्टियों के समय बुआ के पास छोड़ आया करते थे। मैं और मेरी बुआ की बेटी (निक्की) हम-उम्र थे और अच्छे दोस्त भी। मैं…
लगा कुछ ऐसा जब पहुँची Salwoods ! एक ऐसा जंगल हो रहा जहॉं जंगल में मंगल ही मंगल, गहरी घाटी नवेली दुल्हन कलरव चिड़ियों का युवा ह्रदय करते स्पन्दन, लगा कुछ ऐसा, आ गई हूँ अनोखे कार्निवल में खिले हैं जहॉं अनेकों मुस्कुराते फूलों सरीखे मुखड़े, बहुत करते हैं आकर्षित मुझे मुसकुराहटों में दमकते चेहरे, उनके झुण्ड से आते ठहाके…
पिताजी के एक बाल सखा हैं श्री अन्नाभाऊ कोटवाले साहब, जो उनके स्वर्गवास के समय समाचार मिलते ही आ गए थे। दुःख में अपने साथ होते हैं तो सहनशक्ति बढ़ जाती है। समय के साथ दुःख की तीव्रता तो कम हो जाती है, पर खालीपन रह जाता है। दो तीन माह पश्चात वे एक बार फिर घर हाल-चाल जानने आए।…
"मेरे पापा को लाऽओ। मेरे पापा को ल्लाओऽऽ?" ममता दिव्यांग है। देखने में सात आठ वर्ष की लगती है पर है पन्द्रह वर्ष की। कुछ दिन पहले ही उसके पापा का स्वर्गवास एक्सीडेंट से हो गया था। जब पापा थे तब समय से ममता को स्कूल से लाने, ले जाने की जिम्मेवारी बहुत लगन से निभाते थे। धूप, सर्दी, पानी,…
जब से विद्यालय में मैंने पढ़ाना शुरू किया तब से ही रंगमंच मेरे साथ जैसे जुड़ गया था। बच्चों के साथ जब उन्हें कुछ सिखाने का प्रयास करती तो स्वयं ही कुछ सीख जाती। रंगमंच कितना प्रभावशाली माध्यम है अभिव्यक्ति का! मैंने इसके द्वारा कितने बच्चों के व्यक्तित्व को बदलते हुए देखा है। जो बच्चे पहले संकोची से होते हैं,…
बचपन से ही हमें बड़े-बड़े लक्ष्य भेदने की प्रेरणा दी जाती है और यह नहीं समझाया जाता कि ज़िंदगी तो छोटी-छोटी उपलब्धियों से बनती है। छोटे-छोटे लक्ष्य,छोटी-छोटी उपलब्धियाँ बच्चे को जीवनपथ का अारोही बना देती हैं। > आपके पास बैंक अकाउंट में करोड़ों रुपए ना भी हों पर यदि इस ब्लॉग को पढ़ पा रहे हैं तो आप धनी और…