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क्या आपको याद है कि आखिरी बार आपने अपने परिवार के साथ बैठकर फ़िल्म कब देखी थी?ज़रा याद कीजिए ! थोड़ा ज़ोर डालिए।बहुत ही कम लोग होंगे जिन्होंने घर के कमरे में टीवी पर एक पारिवारिक फ़िल्म का आनंद लिया होगा। निःसंदेह, उस आनंद की अनुभूति अवर्णनीय है। इसलिए सोचा कि आप सभी को उस अनुभूति का एहसास यह लेख पढ़कर हो। फिर शायद आप भी इस एहसास को एक बार जी सकें। यक़ीनन आपको समझ आएगा कि किस तरह हम अपने मोबाइल और लैपटॉप्स में इतना उलझे रहते हैं कि अपनों के साथ समय ही व्यतीत नहीं करते।मुझे ये बात तब समझ आई जब मैंने इस लॉकडाउन के दौरान अपने मम्मी-पापा और भाई के साथ 1983 की अवतार फ़िल्म देखी जिसमें अभिनेता राजेश खन्ना ने काफ़ी अच्छा सन्देश दिया है। फ़िल्म खत्म हो जाने के बाद ऐसा लगा जैसे सिनेमा हॉल से देखकर निकले हों, उस कहानी की चर्चा करते हुए मम्मी-पापा के चेहरे की ख़ुशी कुछ अलग ही थी। उन्होंने वो फ़िल्म पहली बार नहीं देखी थी लेकिन फ़िर भी उनके चेहरे की रौनक अलग थी। मुझे लगा कि शायद ये उनकी पसंदीदा फ़िल्म हो इसलिए वो इतना खुश नज़र आ रहे हैं।

मैंने पापा से पूछा, “पापा, क्या ये फ़िल्म आपको बहुत पसंद है?

पापा: “हाँ ! पसंद तो है।”

मैंने कहा: “इसलिए आप और मम्मी इतने खुश हैं !”

पापा: ” नहीं ! हम इसलिए खुश हैं क्यूंकि आज ये फ़िल्म साथ देखकर पुराने दिन याद आ गए। आज से 40-45 साल पहले  जब सिनेमा हॉल, वीसीआर , वीडियो हॉल व टेलीविज़न ने तरक़्क़ी करना शुरू किया था। सिनेमा हॉल में कोई भी फ़िल्म लगती थी तो हम अपने दोस्तों व परिवार के साथ देखने जाते थे। उसके बाद जब वीसीआर आया तो बड़े हॉल्स में मोहल्लों में लोग साथ बैठकर उसका मज़ा लिया करते थे क्योंकि हर किसी के घर में वीसीआर नहीं हुआ करता था। यहाँ तक कि घर के बाहर चबूतरे पर एक मोहल्ले के सभी बच्चे, औरतें, बड़े – बूढ़े ग्रामोफ़ोन पर सिर्फ फ़िल्म के डायलॉग्स सुनते थे, मानों ऑडियो फ़िल्म चल रही हो।  उस समय की बहुत ही हिट फ़िल्म थी शोले जिसके डायलाग सुनने में ही लोगों की बहुत रूचि थी। हम सभी वहीँ साथ बैठकर सुनते और फिर कुछ खाते-पीते, आपस में बातें करते थे। उस समय भी ये एक तकनीक नई थी लेकिन परिवार व समाज के लोगों को जोड़ रही थी लेकिन फिर ये  मॉडर्न टेक्नोलॉजी जैसे मोबाइल , लैपटॉप आदि इतनी तेज़ी से तरक़्क़ी करने लगी कि हमारी ज़िन्दगी का एक अहम् हिस्सा बन गई । तुम लोगों को ही देखलो, एक ही कमरे में होकर सब बस अपने मोबाइल या लैपटॉप चला रहे होते हैं । साथ होकर भी आपस में ना तो कोई बात चीत होती है, ना ही हँसी-ठट्टा होता है। मानों बस सबकी अपनी दुनिया बन गई हो , जिसमें कहने को हज़ारों लोगों से जुड़े हैं लेकिन वास्तव में अकेले ही हैं। वापिस से सब पहले जैसा होता तो कम से कम सब साथ में पहले की तरह ही खुश रह पाते।”

पापा की ये बातें सुनकर लगा मानों मैं कोई कहानी सुन रही थी जहाँ वाकई लोग साथ में खुश रहा करते थे। उदाहरण के तौर पर फ़िल्मों से जुड़ी बीते समय की बातें सुनकर मैं थोड़ी भावुक हुई तो एक झटका सा भी लगा कि जब सब इस तकनीक रूपी दलदल में इतना फंसे हुए हैं कि हमारे बड़े और अपनों के साथ रहना, समय व्यतीत करना भूल ही चुके हैं। फ़िल्म तो बस एक उदाहरण था लेकिन पहले ऐसी कितनी चीज़ें होती थीं जहाँ अक्सर लोग साथ ही होते थे। आप आज ही अपने मोहल्ले का आंकलन करें तो ये जान पाएंगे कि कितने लोग एक दूसरे से बात करते हैं। माना बड़े शहरों में लोगों की ज़िन्दगी काफी व्यस्त होती है किन्तु छोटे शहर व कस्बों के मोहल्लों में भी शायद ही आपको बच्चे आपस में खेलते नज़र आएं, बड़े आपस में बात करते नज़र आएं, इत्यादि। ये सब क्यों हुआ? क्या कभी हमने सोचा कि ये आपसी दूरियां क्यों बढ़ीं क्यों लोग हमें मतलबी लगने लगे ?आज कल अधिकतर लोगों  खासकर के युवाओं से बस यही सुनने को मिलता है- मेरा कोई मित्र नहीं हैं, मैं बहुत अकेला हूँ, क्या करूँ। फिर भले ही उस इंसान के फेसबुक व इंस्टाग्राम पर हज़ारों की संख्या में दोस्त क्यों न हों । यही कारण है कि लोगों में आज नैतिकता कम है, मुसीबतों से लड़ने की हिम्मत नहीं हैं। जब बचपन में हम अपने दादा-दादी से कुछ पुरानी ऐतिहासिक व गौरव पूर्ण कहानियां सुनते थे तो हमारे अंदर उनसे जुड़े महत्त्वपूर्ण विचार रह जाते थे। वो विचार इस संसार की हर मुश्किल से लड़ने का हौसला देते थे किन्तु अब तो शायद ही आज के युवा या आगे आने वाली पीढ़ी ने अपने बड़ों के साथ उतना समय बिताया हो।एक भावनात्मक जुड़ाव जो हमें जोड़े रखता है वो बहुत ही कम होता जा रहा है। लोग अपनी बनाई डिजिटल दुनिया में खोते जा रहे हैं। एक ऐसी दुनिया जहाँ वो अकेले हैं और ये अकेलापन लोगों में बढ़ते डिप्रेशन व मानसिक रोगों का भी एक अहम् कारण है।  इस कोरोना के कारण एक बात का एहसास तो हो गया कि इस ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं हैं । घर की चार दीवारी में भी बहुत आनन्दमय सुरक्षित जीवन जिया जा सकता है ।परिवार के सदस्य हमारे जीवन के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं इसलिए अपने परिवार के लिए समय ज़रूर निकालें।

फीचर्ड फोटो क्रैडिट : Ajeet Mestry/Unsplash

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