Top Menu

पिताजी के एक बाल सखा हैं श्री अन्नाभाऊ कोटवाले साहब, जो उनके स्वर्गवास के समय समाचार मिलते ही आ गए थे। दुःख में अपने साथ होते हैं तो सहनशक्ति बढ़ जाती है। समय के साथ दुःख की तीव्रता तो कम हो जाती है, पर खालीपन रह जाता है। दो तीन माह पश्चात वे एक बार फिर घर हाल-चाल जानने आए। जाते समय उन्होंने पूछा, ‘क्या होता है इस उम्र में पिता को खोने का अहसास?’ मैं स्वयं अब महाविद्यालय जाने वाले बच्चे पिता हूँ। इस कारण इस प्रश्न का आशय औपचारिक नहीं हो सकता था। प्रश्न भी एक विद्वान और दर्शनशास्त्री ने पूछा था। निश्चित तौर पर यह अंतर्मन और आत्मा को टटोलने के लिए था, कुछ और जानने के लिए था। इस प्रश्न ने मन को अशांत किया, मन्थन होगा तो अशांति तो होगी ही।

​पिता वृद्ध हो गए थे। बीमार भी थे। ऐसा लगता था कि बच्चे समझदार हो रहे हैं, परन्तु अधिक उम्र और कम होती याददाश्त के कारण पिता बच्चों से हो रहे थे। पिता अब हमें संभालने वाले नहीं रहे थे। अब उनकी जिम्मेदारी हमारी थी। बीमारी के कारण उनकी शारीरिक क्षमताएं भी कम हो रही थीं। इस अवस्था में माता-पिता को जो सर्वश्रेष्ठ उपहार बच्चे दे सकते हैं, वह है उनका साथ और माता-पिता बच्चों को दे सकते हैं वह है उनका उत्तम स्वास्थ्य। बच्चे अगर साथ हैं तो कितना सुख मिल सकता है, ये वो माँ-बाप अच्छे से बता सकते हैं, जिनके पुत्र-पुत्री नौकरी के लिए दूसरे शहर में हैं या विदेश में हैं। इसी तरह बच्चों के दादा-दादी अगर स्वस्थ हैं, बच्चे उनके साथ खेल रहें हैं, उनसे कहानी किस्से सुनकर बड़े हो रहे हैं, तो यह ईश्वर की विशेष कृपा है। यह विशेष कृपा हम पर भी थी पर फिर भी यह लगने लगा था कि पेड़ के पत्ते पीले पड़ गए हैं। पीले सूखे से पत्तों का पेड़ से टूटकर गिरना अनजाने में ही स्वीकार्य हो जाता है। इन परिस्थितियों में पिता को खोने का अहसास सतही तौर पर हिला देने वाला तो नहीं था, परन्तु यकीनन कहीं कुछ ऐसा खो गया था जो फिर नहीं मिल सकता।

​जब तक माता-पिता साथ रहते हैं, तब तक बचपना जिन्दा रहता है। इस बचपने के अहसास से जीवन में अकारण मस्ती रहती है, ताजगी और उत्साह रहता है। उनके जाने के बाद अचानक यह बचपना खो जाता है, जिम्मेदारी के कारण ही सही लेकिन प्रौढ़ता का अहसास होता है।

​माता-पिता के लिए बच्चे कितने ही बड़े हो जाएँ वे उनकी पीठ थपथपा सकते हैं। उनके जाने के बाद इस उम्र में उत्साहवर्धन करने वाले और हमारी थोड़ी सी सफलता से प्रसन्न होने वाले और कोई शायद ही मिलें। न जाने यह क्यों मान लिया जाता है कि प्रशंसा और उत्साहवर्धन की आवश्यकता केवल बच्चों को ही होती है। बच्चा जब पहला कदम बढ़ाता है तो माँ उसे चूमती है, ताली बजाती है। गला काट प्रतियोगिता के इस युग में अब जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता जाता है यह प्रशंसा नसीहतों में बदल जाती है। अब खुशी जाहिर करने के बजाय उसे अगला लक्ष्य दे दिया जाता है। पिता के जाने के बाद हम वंचित हो गए खुशी की उस झलक से जो हमारी छोटी से सफलता पर भी उनके चेहरे पर आ जाती थी। दादाजी के जाने के बाद बच्चों ने खो दिया है। अपने बचाव पक्ष के वकील को, जो हमेशा उनका पक्ष लेते थे। उनके रहते आप बच्चों को अधिक डाँट नहीं सकते थे। पढ़ाई के लिए अधिक दबाव नहीं डाल सकते थे। बच्चे जानते थे कि जो उन्हें डाँट-फटकार लगाते हैं उन्हें भी डाँटने वाला कोई है। दादा-दादी बच्चों के हाइकोर्ट होते हैं।

​सुख या दुःख के क्षण बीत जाने के बाद किसी के हाथ नहीं आते, साथ रह जाती हैं मधुर यादें। रह जाता है किसी के द्वारा सिखाया गया जीवन दर्शन, किसी के द्वारा जगाया गया आत्मबल जो आजीवन साथ रहता है, जीवन का आधार होता है। विद्यार्थी जीवन की ऐसी ही एक घटना याद है। महाविद्यालय के एक प्रोफ़ेसर साहब ने पिताजी से शिकायत की थी कि आपके बच्चे के साथी अच्छे नहीं हैं, वह भटक सकता है, तब उन्होंने प्रोफ़ेसर साहब को जवाब दिया था ‘मुझे मेरे पुत्र पर विश्वास है, वह भटक नहीं सकता, उम्मीद यह है कि उसके साथी सुधर जाएँ।’ यह बात मेरी पीठ पीछे हुई थी, जिसका पिता ने कभी जिक्र नहीं किया। वार्षिक परीक्षा का जब परिणाम अच्छा आया, तब यह बात प्रोफ़ेसर साहब से ज्ञात हुई। उन्होंने समझाया कि यह विश्वास कायम रखना। मेरा आत्मबल पिता के कारण कई गुना बढ़ गया। इस आत्मबल के कारण ही एक संयमित जीवन जीने में सफल हुआ। यह बात गर्व की नहीं पर बताने की अवश्य है। आज मेरे बच्चे जितने समझदार हैं और संयमित हैं उनकी उम्र में मैं नहीं था, लेकिन असुरक्षा और नकारात्मक ख़बरों का संक्रमण इतना अधिक हो गया है कि पिता के समान हम अपने बच्चों पर विश्वास नहीं रख पाते । मधुर यादें फिक्स्ड डिपॉजिट की तरह होती हैं। पिताजी को फिल्मों का शौक बिलकुल नहीं था, पर अपने पाँचवी कक्षा के बच्चे की फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ देखने की जिद को पूरा करने के लिए उसे ट्रेन से उज्जैन से इन्दौर ले गए थे। फ़िल्म दिखाई और उसके ट्रेन में बैठने के शौक को भी पूरा किया। विश्वास के साथ नहीं कह सकता मेरे बच्चों के मेमोरी बैंक में इस तरह के डिपॉजिट हैं या नहीं, या हैं तो ऐसा न हों कि बहुत कम हों।

​यह सही है कि माँ का दर्जा निश्चित ही पिता से ऊंचा है लेकिन पिता का स्नेह और त्याग भी कम नहीं होता। फिर पिता को भावुक होकर भी सख्त दिखना होता है। ऑंसुओं को थामना या पी जाना माँ के लिए कठिन है लेकिन पिता सामान्यत: यह आसानी से कर लेते हैं। माता-पिता आजीवन तो अपने बच्चों के लिए दुआएँ करते ही हैं, उनका आशीर्वाद साथ होता ही है, लेकिन उनके जाने के बाद भी जीवन में कई बार ऐसा कुछ घटता है कि लगता है अदृश्य हाथ हमें पकड़कर सही रास्ता दिखा रहें हैं। उनके जाने के बाद भी जीवन में उनकी दुआओं का सिलसिला समाप्त नहीं होता। मशहूर शायर मुन्नवर राना लिखते हैं-

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आती है

माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आती है

Comments

comments

About The Author

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Powered By Indic IME
Close