इक दिन जाना है भाई!
“मेरे पापा को लाऽओ। मेरे पापा को ल्लाओऽऽ?”
ममता दिव्यांग है। देखने में सात आठ वर्ष की लगती है पर है पन्द्रह वर्ष की। कुछ दिन पहले ही उसके पापा का स्वर्गवास एक्सीडेंट से हो गया था। जब पापा थे तब समय से ममता को स्कूल से लाने, ले जाने की जिम्मेवारी बहुत लगन से निभाते थे।
धूप, सर्दी, पानी, बरसात उनकी मोटर साइकिल हमेशा गेट के दाहिनी ओर खड़ी मिलती थी। ममता छुट्टी होते ही दाहिनी तरफ भागती, फिर पापा धूप का चश्मा पहनाते, सर पर कैप लगाते और स्ट्रैचबैंड जैसी बेल्ट अपनी कमर से बॉंधते और साथ में ममता उसी बैल्ट में टू इन वन सी बँधी, ज़ूऽऽऽम …. टेक ऑफ कर जाती। कई बार आयाजी ने दबी ज़ुबान मोटर साइकिल आहिस्ता चलाने का सुझाव दिया था पर उनकी टेक आफ स्पीड कम न हुई और एक दिन जब दोपहर ममता को लेने स्कूल आ रहे थे तब कहीं मोड़ पर अटका मारूति ट्रक उन्हें लील गया। स्कूल बस में टीचर्स ममता को बिलखते परिवार के पास छोड़ आईं। दस दिन तक वो स्कूल नहीं आई। ऐसा होना स्वाभाविक था। अगले दिन उसकी मॉं थ्री व्हीलर में स्कूल तक छोड़ने आईं। साथ ही कह गईं शाम को इसके दादाजी ले जाएंगे। अब तक ममता को सब पता था कि पापा एक्सीडेंट में बाबाजी के घर चले गए हैं। उसपर ज़्यादा असर दिख भी नहीं रहा था। स्कूल की सब एक्टिविटीज़ उसने अच्छी तरह हँसते-खेलते करीं। दोपहर जब छुट्टी हुई और पापा की मोटर साइकिल नहीं दिखी तब उसकी आँखों में उतरती निराशा और बेचैनी ने वहॉं खड़े सभी टीचर्स और अभिभावकों को रूला दिया। दादाजी उससे ज़्यादा भावुक थे। मामला बहुत नाज़ुक था। मैंने अपनी गाड़ी निकाली और दादा-पोती को बैठाकर घर ले जाने के लिए चल दी। रास्ते में बोझिल माहौल को हटाने के लिए मैंने इधर-उधर की बातें कीं। उन्हें समझाया कि ममता अच्छी तरह अपना सबक सीख लेती है और दूसरे बच्चों को सिखाती है। आप इसका स्कूल मत छुड़वाइएगा। वो तुरन्त बोले नहीं मैडमजी, शाबाश है इसकी मॉं को। उसने बहुत जल्दी अपने को सम्हाल लिया है। जब तक आप मना नहीं करोगे तब तक ये आती रहेगी। घर पहुँचने पर उसकी दादी, मॉं, चाची सभी आ गए। मॉं को देखते ही ममता बोली, “मम्मा, पाप्पा सकूल नहीं पहुँचे? अजे तोड़ी आए नईं।”
मॉं का सफेद पड़ा चेहरा बेबसी से उसे देख रहा था। दादी ने पल्ले की कोर से ऑंख पोंछ ली। मैं वहीं दालान में पड़ी चारपाई पर बैठ गई। दादाजी कभी पानी, कभी चाय पूछकर माहौल हल्का करने की कोशिश कर रहे थे। मैं उसकी मॉं से बात करने लगी। वह बोली, “मैडमजी मैंने बीए किया है क्या मैं ऐसे बच्चों को पढ़ाने की ट्रेनिंग ले लूँ?” “बिल्कुल, आप हमारे जैसे स्कूल में बहुत योगदान दे सकतीं हैं।”
मैंने दादाजी से बहुत धीमे से पूछा आज आपके घर में इतना बड़ा हादसा हो गया है फिर भी आप बहुत संयत लग रहे हैं। आपकी मन की स्थिति कैसी है?
“मैडमजी, मैं भी बहुत रोता हूँ पर आँसू पी जाने में माहिर हो गया हूँ। मैंने बहुत किताबें पढ़ी हैं पर अपने ऊपर आई विपदा को कैसे सम्हालना है कोई किताब नहीं सिखाती। तजुर्बा ही काम आता है।
ईश्वर बहुत ही विचित्र खिलाड़ी है, उनके खेलों का रहस्य कोई नहीं जान पाया है। वह एक ओर संसार की रचना करता है तो दूसरी ओर प्रलय के दृश्य भी दिखलाता है। उसकी कारीगरी तो सभी जीवों को उदय और अस्त करने में लग जाती है।
उसके राज्य में कोई भेदभाव नहीं है। सबने जाना है। पर उमर का फासला महत्त्वपूर्ण है। अकाल मृत्यु घर में बैठे बड़े-बूढ़ों को तोड़ देती है।
स्वेच्छा मृत्यु क्या है? अपनी इच्छा से कौन जाना चाहेगा। भीष्म पितामह ने इच्छा मृत्यु का वर प्राप्त किया था। परंतु अंत में काम हो जाने के बाद पारब्रह्म में ख़ुद ही विलीन हो गए थे। उन्हें भी पता था कि यहॉं अमर बेल खाकर कोई नहीं आता। बॉर्डर पर देखलो देश के लिए लोग जान की कुर्बानी दे देते हैं। ये हैं जो दुनिया में कुछ कर गुज़र गए, कुटिल काल शहीदों के नाम और यश को नहीं खा सकता। उनकी कीर्ति हमेशा गाई जाती है।
आज हमारे सामने राम और कृष्ण का अच्छा उदाहरण है वो लोगों के मन में बसे हैं। लोग उनके नाम का अजपा जाप करते हैं। ईसा मसीह, गुरु नानक़देवजी अपने ग्रंथों द्वारा रोज़ नयी व्याख्या देते हैं। रामचरितमानस तुलसी दास जी की यादगार है। मृत्यु ना तो डरने की बात है ना दुःख की। जिस प्रकार अग्नि का काम जलाना, पानी का काम शीतलता देना है उसी प्रकार मृत्यु का काम भी पुराने शरीर से निजात दिलवाना है। काल बड़ा चोर है वह ऐसे समय में सेंध लगता है जब किसी को पता नहीं चलता। वह सदैव जागता रहता है। आने की सूचना कभी नहीं देता है। दुनिया को हमारी आवश्यकता है या नहीं उसकी उसे परवाह नहीं। हमारे घर में भी यही हुआ है। घर का सबसे सुन्दर जवान बच्चा चला गया, जिससे सबको बहुत आस थी। यह संसार ही नाशवान है फिर क्या मोह रखना?”
मैंने नम आँखों से उनसे विदा ली।
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प्रोजेक्ट फ्युएल द्वारा हम चाहते हैं कि हमारे देश के गुणी एवं प्रेरक अध्यापकों को स्कूल की सीमा के बाहर भी अपने अनुभव भरे ज्ञान बाँटने का अवसर मिले। इस समूह के निर्माण से ना केवल अध्यापकों को अपनी बात कहने का मंच मिलेगा बल्कि अपनी कक्षाओं से बाहर की दुनिया को भी प्रभावित और जागृत करने की चुनौती पाएंगे। आज यह प्रासंगिक होगा कि हम एक पहल करें हिंदी के लेखकों और पाठकों को जोड़ने की।हम चाहते हैं कि पाठक अपनी बोलचाल की भाषा में कैसी भी हिंदी बोलें पर उनका शब्द भंडार व वाक्य विन्यास सही रहे। हमें उम्मीद है इस सफ़र में साथ जुड़कर अध्यापक बहुत कुछ नई जानकारी देंगे।
इसी श्रंखला में हमने आमंत्रित किया है :
श्रीमती सरला पंत
आर्मी पब्लिक स्कूल
क्लेमेंट टाउन
देहरादून