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सुबह-सवेरे पाँच बजे चूड़ियों की खनक, खुरपी की छप्प-छप्प, कुदाली से मिट्टी के ढलों की टूटन, पौधों को जड़ों से उखाड़ने की आवाज़, फिर धरती पर झप-झप, सब कुछ एक लय – एक गति। कुछ ऐसा जो बहुत पुरानी यादों का पिटारा खोलता सा लगा। कुछ ऐसा धरती से जुड़ा संगीत जिसे सुनकर मन प्रफुल्लित हुआ। मैं झट से उठकर इष्ट-देव नमन कर बाहर आ गयी। निगाह जितनी एक ओर से दूसरी ओर तक आत्मसात कर सकती थीं, कर रही थीं – सौड़ एक प्याले की तरह पहाड़ों से घिरी घाटी, जिसकी चोटियों पर उतरती धूप की पहली किरणें मन में अनोखा उत्साह भर रही थीं। खेतों में स्त्रियॉं –

दिन भरीक थकी पराण, खेतों में पसीण बहौं छी
आलू – पिनाऊ साग दगैण, मडुवक चार रौट खछी
रत्ती कनै भलीक्कै पेट लै साफ हूँछी
आहा! पहाड़ में कतु भल दिन हूँछी….

साभार- संजय पाठक

मुझे देखकर मौसीजी ने पुकारा, “नमस्ते, मैडमजी! उठ गए आप?” मैंने हाथ जोड़कर अभिवादन किया। उनके चेहरे पर खिली मुस्कान सामने चोटियों पर खिली धूप एक जैसी ख़ुशनुमा लगी। चुप-चाप उनकी छत पर चारों तरफ़ घूमकर घाटी का अवलोकन किया। हरे-भरे चीढ़, बाँझ और दूर पहाड़ पर देवदार ऐसे खड़े थे जैसे किसी चित्रकार की तेज़ी से चलती तूलिका ने हरे रंग के हज़ारों आयाम (hues) कैनवास पर उकेर दिए हों ।

स्पष्टत: छह-सात पहाड़ी श्रंखलाएँ एक दूसरे के आगे-पीछे होते हुए नीचे घाटी तक पसरी हुई थीं। जिनके बीच में से पहाड़ी पानी का गदेरा अपना कोलाहल मचाता बह रहा था। घाटी की नीरवता के कारण, चिड़ियों की चहचहाहट, पानी की तेज़ी से उठती कलकलाहट, गाय-भैंसों का रंभाना और झुंड में जाती बकरियों के गले की घंटी। सब साफ़ सुनाई दे रहा था। कमरे के सामने के खेतों में मौसीजी और बिमलाजी की चूड़ियों की खनक एक ऐसा संगीत पैदा कर रही थीं जिन्हें कैमरे में क़ैद करने को मन ललक उठा। कैमरा देख दोनो मुस्कुरा उठीं और पहला छायाचित्र अंकित हो गया। पहली उपलब्धि!


Picture Credits – Vibhor Yadav

“मैडमजी, पहाड़ी रास्ता है पत्थर सही से नहीं लगे हैं। देखकर उतरिएगा। हमने रास्ते से कंडाली काट दी है पर कहीं-कहीं हो भी सकती है हर किसी घास में पैर मत रखिएगा।”

पहली सीख: कंडाली बिच्छु घास है जो यत्र-तत्र-सर्वत्र उग जाती है। जैसे ही शरीर से स्पर्श होता है तो ऐसा लगता है जैसे बिच्छु ने डंक मार दिया हो।

दूसरी सीख : जल्दबाज़ी अपना नुक़सान। अस्पताल यहाँ से दो घंटे की दूरी पर चम्बा में ही मिलेगा।

वॉकिंग शूज़ और लम्बे मोज़े बिना आलस के पहनने शुरू कर दिए।

अब चलना आसान था और घाटी पुकार रही थी।

‘Duenorth’ होमस्टे से, बेड़ गाँव, पाँच मिनट की दूरी पर नीचे की तरफ़ था। अभी दीपक और पूर्णिमा देहरादून से आए नहीं थे। ‘Wise Wall’ प्राजेक्ट की मुख्य आर्टिस्ट पूर्णिमा थीं और मुख्य कॉन्सेप्ट दीपक का था। कुछ वॉलंटियर भी उनके साथ आने वाले थे। तक़रीबन प्रति सप्ताह बदलने वाले बीस वालंटीयर्ज़ और पाँच लोकल स्टाफ़ के साथ ये कारवाँ कैसे आगे बढ़ेगा, अभी कल्पनाओं में ही था।


Picture Credits – Vibhor Yadav

सौड़ गाँव के भूतपूर्व प्रधान श्री मोहन लालजी के अनुसार सौड़ गॉंव सन १२०० के आस-पास बसा होगा। राजा श्रीनगर के काश्तकारों के नाम जो ज़मीनी दस्तावेज़ मिलते हैं उनमें तिथि सन १३०० पड़ी है। राजा की खसरा-खतौनी में ज़मीन की पैमाएश भी मिलती है।

सन् ९०० के करीब यहॉं अलग-अलग राजा राज करते थे। जो तकरीबन ५२ गढ़ियों में बंटे हुए थे।

इन्हें मालवा के राजकुमार कनकपाल ने एक किया। उन्होने राजा भानुप्रताप की बेटी के साथ विवाह किया और उनकी सन्तानें १८०३ तक यहॉं राज्य करती रहीं।

सन् १८०३ में राजा प्रद्युम्न शाह के खिलाफ यहॉं गोरखा राज्य आया। उन्होने तकरीबन २०० गॉंव ईस्ट इन्डिया कम्पनी से भी छीने और १८१४ तक राज्य किया। अंग्रेजों के प्रयास व गोरखों के साथ युद्ध लड़ने से टिहरी, परमार और शाह वंशजों के पास आ गई। उन्हें महाराजा कहा गया। उन्होंने १८१५ से १९४९ तक राज्य किया। १ अगस्त १९४९ के दिन ये टिहरी क्षेत्र भारत के गणतंत्र में मिला लिया गया। इससे पहले यहॉं राजा के प्रशस्ति गीत गाए जाते थे। यहॉं के अन्तिम राजा मानवेंद्र शाह थे।


Picture Credits – Vibhor Yadav

पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण टिहरी देश के अति पिछड़े क्षेत्र में आता था। आजादी के बहुत समय बाद तक भी यहॉं सड़क, बिजली, स्कूल और चिकित्सा के साधन नहीं पहुँच पाए। आज भी यहॉं के शहर टूरिस्ट व्यापार पर निर्भर करते हैं। अधिकॉंश क्षेत्र पहाड़ी हैं जहॉं दो घण्टे से पहले आकस्मिक चिकित्सा सुविधा नहीं है। गॉंवों में सड़क ४०-४५ मिनट की चढ़ाई के बाद ही मिल पाती है। इसीलिए जो सम्पन्न थे वे लोग पुराने नीचे के गॉंव छोड़कर सड़क किनारे बस गए और पुराने घरों के कई वारिस आ गए। उनके आपसी झगड़ों के कारण न तो घर बिक सकते हैं न ही उनमें रहा जा सकता है। यहॉं सिर्फ खेती ही की जा सकती है या पशु पालन। आज की पीढ़ी इतनी मेहनत नहीं करना चाहती इसलिए तकरीबन सन् १९७० से यहॉं कई घर वीरान हो गए। आज वो खण्डहर की स्थिति में बदल चुके हैं। लोग उनकी छतें, दीवारें ढहते देखकर भी उदासीन हैं। मोहन लाल जी बताते हैं हमें इन खण्डहरों से आती पुरानी आवाजें आज भी याद हैं। मण्डाण्ड के स्वर, गीत, ढोल, दमौ, हुड़की की थाप आज भी मन में बसी हुई हैं। आपसी बैर पुराने बूढ़े हुए कदमों को वापस नहीं लाता। एक सौ पचीस परिवारों में से हम सिर्फ बारह परिवार यहॉं रह गए हैं। तीस साल पहले यहॉं बहुत पशु पाले जाते थे। गाय, भैंस,बकरियॉं, खच्चर-बैल सबके पास थे। लाइन से सब जंगल में चराने ले जाते थे। लाइन से सब पशु वापस आते थे। घास काटने के लिए भी कुछ महीने बांई तरफ के जंगल और कुछ महीने गदेरे के उस पार के जंगल जाते थे। दुकानों की यहॉं जरूरत ही नहीं थी सिर्फ नमक, गुड़ खरीदने लोग ऋषिकेश जाते थे। गॉंव के वैद्य जीरा, अजवाइन, काला-जीरा, नमक कुछ जड़ी-बूटियों से इलाज कर लेते थे। अधिक तकलीफ में लोग खच्चरों पर बैठकर सड़क तक जाते थे और वहॉं से दून अस्पताल या डॉ कल्हन, डॉ राममूर्ति के दवाखाने देहरादून तक जाते थे। अधिकांश तो जा ही नहीं पाते थे। टिहरी राजधानी थी जहॉं काम लायक पूरा बाजार था। राजमाता विद्यालय, घण्टाघर, राजमहल बगीचे सब देखने लायक था अब सबको जल समाधि मिल चुकी है।

यहॉं आस-पास मुसलमानों के गॉंव भी बसाए गए जिनका पुश्तैनी काम चूड़ी बनाना था। गॉंव की स्त्रियों के श्रंगार का सामान वो ही बनाते थे और जंगली जानवरों से गॉंव को बचाते थे। आज उनकी सन्तानें गल्फ देशों में होटल, कारीगरी, मेसन, मिस्त्री का काम कर रही हैं और अपने साथ गॉंव के अन्य बेरोजगारों को भी ले गई हैं।

पहले हर गॉंव के अपने ट्रेडमैन थे। हमारे सौड़ में मकान बनानावाले मिस्त्री सुकरू मिस्त्री प्रसिद्ध थे। उनके साथ मूलु मिस्त्री, कुरता मिस्त्री बढ़ई का काम करते थे। पूसा लोहार, नुरचू, मंगलू, पंकज लोहार लोहे का काम करते थे। सोनार के लिए गुलाब सिंहजी, सुमेर सिंहजी प्रसिद्ध हुए। पंण्डित के लिए डुंगली गॉंव के डबराल परिवार में सुन्दर लालजी, मुरारीलालजी बुलाए जाते थे। कुजाल्डी गॉंव में आज भी सुरकण्डा देवी के पुजारी निवास करते हैं। पहले हमारी देवी का मन्दिर भी वहीं था। वर्षा ऋतु में हम ढोल दमौं बजाते हुए देवी के मन्दिर में वर्षा देने की प्रार्थना धूम-धाम से करते थे और घर लौटने तक बारिश की फुहार पड़ने लगती थी। हमारी खेती पूरी तरह बारिश पर ही निर्भर करती है।

गॉंव के मवेशियों के लिए जंगल में घास की सुरक्षा का काम मोहन सिंह राणा जी करते थे। वन पंचायती वन थे। जंगलों में औरतें घास लेने जातीं थीं, तब वहीं चुड़ैरे चूड़ियॉं, बिन्दी, नकली झुमके जेवर आदि लाते थे।


Picture Credits – Vibhor Yadav

दशहरे-दीवाली से पहले हर घर में मण्डांड लगती थी, खूब खाना-पीना चलता था। सब ढोल पर नाचते थे। दस-पन्द्रह दिन उत्सव चलता था।

हमने जब पूछा कि इतना सब सामाजिक परिवेश, आपसी व्यवहार के बाद भी पलायन क्यों हुआ? वह भी इतनी उदासीनता के साथ कि लोगों ने बेड़ गॉंवों से नाता ही तोड़ लिया।

मोहनलाल जी ने पॉंच मुख्य कारण बताए:

बच्चों की पढ़ाई की व्यवस्था न होने के कारण। जो गॉंव से बाहर रह कर पढ़ लिख गया, नौकरी में उलझ गया। वापस ही नहीं आया।
सड़क न होने के कारण बूढ़े-बुजुर्गों को चिकित्सा की सुविधा शहरों में ही मिल पाती थी। समय-समय पर कन्धे पर लादकर कितनी बार ले जा पाते? उनके बच्चों ने वापस ही नहीं भेजा।
गॉंव का जीवन भरा-पूरा है पर सुबह चार बजे से मिनट दर मिनट मेहनत करनी पड़ती है। शाम के पॉंच बजे तक दो बारी घास कटाई, दो बार खेतों में निलाई-गुड़ाई, पशुओं को चराने ले जाना, बच्चों को स्कूल जाने के लिए पॉंच से दस किलोमीटर तक पैदल चलना। शहरी जीवन की तुलना में आप खुद सोच लीजिए।
रोजगार के कोई साधन आज भी नहीं हैं। इण्टर कर लेने के बाद भी बच्चे होटलों में सहायक या ड्राइवर ही बन पाते हैं। सरकारी भर्तियों का पता ही नहीं चलता। चल भी जाए तो प्रतियोगिता में निकलना आसान नहीं।
खेती से इतनी आमदनी नहीं होती थी कि परिवार का खर्चा निकल जाए। नए प्रकार के बीज या तकनीक मिल नहीं पाते। सरकारी सहायता शहरों तक ही सीमित रह जाती है। विडम्बना यह है कि आज भी उत्तराखण्ड के गॉंव पिछले तीस वर्षों से जहॉं के तहॉं दिखाई दे रहे हैं। आवश्यकता है नई सोच की, नई योजनाओं की और युद्ध स्तर पर क्षेत्रीय विकास की। पलायन भारी अवसादपूर्ण शब्द है जिसे कविताओं में, अखबारों में सिर्फ उछाला जाता है। तृणमूल स्तर पर इसके उपाय सोचने के लिए दीपक रमोला और उनकी पीढ़ी के नवजवानों की कार्यशैली को स्वीकारना होगा। पहाड़ों पर छूटी सम्पदा को नया चोला पहनाना होगा। इसमें तीन स्तरों पर काम होगा। नई पीढ़ी के वारिस, सरकारी योजनाएं और स्थानीय लोग।

श्रीमती रौशनी देवी पत्नी श्री जयेन्द्र चन्द्र: जीवन शिक्षा – संसार में सबसे उत्तम सम्पत्ति अपना घर और ज़मीन है। उससे जुड़े रहना हमारा कर्तव्य है।

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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