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ट्रेन के सिटिंग कम्पार्ट्मेंट में बैठे हम बहुत उत्सुकता से बोलपुर स्टेशन का इंतज़ार कर रहे थे। कोलकाता से बहुत लम्बा रास्ता नहीं था। पर आज बचपन की मुराद पूरी होने जा रही थी। हम शांति निकेतन की यात्रा पर थे। किसी ज़माने में माँ की बहुत इच्छा थी कि मैं शांति निकेतन से ग्रैजुएशन करूँ। बचपन से कहती थीं तुझे शांति निकेतन भेजूँगी। ऐसा हो ना पाया और शांति निकेतन कहीं मन में दब-सा गया। अब रेटायरमेंट के बाद पति को याद आया शांति निकेतन घूम आते हैं मेरे मित्र वहाँ रजिस्ट्रार हैं। मन प्रफुल्लित हो उठा… My long cherished dream is going to be realised… So soon, only after a gap of say, 40 years…. एक आत्मा की यात्रा के लिए 40 वर्ष कोई ज़्यादा तो नहीं। चलो, हम visit तो करें इस जनम में। पढ़ने के लिए कई जनम बाक़ी हैं।

हम कोलकाता ऐसे गए जैसे तीर्थयात्रा करने गए हों हमारे एजेन्डे में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का वो घर था, जहाँ से वे भागे थे। दक्षिणेश्वर काली टेम्पल जहाँ आचार्य राम कृष्ण परमहंस निवास किया करते थे। मदर टेरेसा का मदर हाउस और शांति निकेतन था।

शांति निकेतन पर मैं डॉक्युमेंटरी देख चुकी थी और मन हिलोरे ले रहा था…. बचपन में पापा ने मेरे बेड के सामने गुरुदेव की फ़ोटो लगाई थी और रोज़ सुबह उठकर प्रणाम करने को कहते थे। छोटा सा कमरा बड़ी सी गुरुदेव की फ़ोटो, उनकी दाढ़ी के सफ़ेद बाल, नीला चोगा सब आँखों में तैर रहा था। तभी सामने एक भगवा वस्त्रों में बुजुर्ग एकतारा बजाते हुए गुज़रे। उनके गीत में राधा गोविन्द का वर्णन था, एकतारा के साथ छोटी सी कमर में बँधी ढोलकी उसे ताल और संगत बख़ूबी दे रही थी। चेहरे पर चम्बल के बीहड़ के sand dunes सी झुर्रियाँ, शांतभाव से गाते हुए बिना कुछ माँगे वो आगे बढ़ गए। बरबस ध्यान उसी तरफ़ लग गया। संगीत के साथ रबीन्द्र संगीत गाने का तरीक़ा बिलकुल बाउल पद्धति की तरह, कौतूहल और बढ़ गया। मन में आशंका उठी कि कहीं अगले स्टेशन पर उतर ना जाएँ। इस बीच ट्रेन झपतेर ढाल स्टेशन तक पहुँच गयी थी। मुझे बोगी के दरवाज़े की तरफ़ लगातार ताकते हुए मेरे पतिदेव ने देखा, उठकर आए, “क्या कुछ खो गया तुम्हारा?” “नहीं, वो बाउल सिंगर था ना पता नहीं क्यूँ मन कर रहा है उनसे कुछ बातें करूँ।” ये आगे की बोगीज़ तक गए और पन्द्रह बीस मिनट में ही उन्हें ले कर लौटे। मैं झट से बोगी attendant के पास पहुँची क्यूँकि दुभाषिये की ज़रूरत थी उन्हें हिंदी समझ तो आती थी पर बोलनी नहीं। Attendant साहेब थोड़े कड़क के बोले, ” मैडम, ये सब चोर हैं चोर, बिना टिकट चलते हैं और यात्रियों से माँग कर हैरान करते हैं।” मुझे उनकी बात सुनकर हैरानी हुई। मैंने सीधे उन्हीं से पूछा, “आप टिकट नहीं ख़रीदते क्या?”

उनके चेहरे पर भाव बहुत तटस्थ थे। धीरे से एकतारा हटा कर जेब से उन्होंने महीने भर का पास निकाल कर दिखा दिया। मुँह से एक शब्द नहीं निकला। तभी कुछ यात्री उत्सुकतावश हमारे पास अा गए। अटेंडेंट साहेब आगे की बोगी की तरफ निकल गए। लोगों ने मज़े से अनुवाद शुरू कर दिया। मैंने उन्हें समझाया कि हम एक ऐसे प्रोजेक्ट के लिए काम करते हैं जिसमें लोगों के जीवन की आजमायी हुई शिक्षा को समझते हैं और उन्हें activity में बदल कर बच्चों को सिखाते हैं।

“आप हमसे बात करना पसंद करेंगे क्या?”

उन्होंने सीधे से अपना एकतारा छेड़ा और मेरी तरफ़ बढ़ा दिया-लो, देखो और सीखो। उनकी कमर में बँधी छोटी सी ढोलक ताल देने के लिए थी। मुझे बहुत अच्छा सा लगा, हँसी भी आयी कि अगले कुछ मिनटों में मैं क्या सीख पाऊँगी?

“आप अपने जीवन से सीखी शिक्षा समझाइए।”

उन्होंने कहा- “यह वाद्य यंत्र ही तो सब सिखाता है। देखो, इसमें सिर्फ़ एक तार है मेरे स्वर के साथ मिलकर संगीत पैदा करता है। अपने आप में रचना पूरी हो जाती है। स्वर को साज़ मिला तो संगीत पूरा है। इसके एक तार के बंधन से मैंने सीखा कि भगवान एक है। उससे अटूट बंधन बाँध लो तो जीवन का संगीत अधूरा नहीं रहता। किसी दूसरे की ज़रूरत ही नहीं होती। इसमें नीचे देखो यह मिट्टी का तुम्बा है जो अंदर से खाली है उसके अंदर सिर्फ़ हवा है। जब तार के ऊपर मैं ऊँगली से छेड़ता हूँ तो आवाज़ में गमक पैदा होती है जो सुनने में विचित्र गहराई से आती लगती है।

इसी प्रकार यह शरीर है। जब आप खाली पेट भरने के लिए दिल की गहराई से गाते हैं तो आवाज़ में बनावट नहीं रहती। अन्दरूनी गमक के साथ आवाज़ निकलती है जो आपके जीवनयापन का सहारा बनती है। मेहनत करने से उसमें जो चमत्कार भरता है वह ईश्वरीय होता है।

यह इसकी लम्बी सी डांड देखो बॉंस की खपच्ची से बनी है। जब तक इसके ऊपर से तार बँधता नहीं तब तक किसी प्रकार का स्वर उभर नहीं सकता। जीवन कितना भी लम्बा क्यूँ ना हो, शरीर कितना भी सुन्दर क्यूँ ना हो, जबतक ईश्वर के नाम आधार रूपी डांड पर नहीं बँधता तब तक मधुर नहीं हो सकता।

मैं आज पचहत्तर वर्ष का हूँ। इस पेशे में आने से पहले राज मिस्त्री था। मेरे दादाजी बाउल गीतकार थे। उस समय मुझे मिस्त्री का काम ज़्यादा मिलता नहीं था। मुश्किल से गुज़ारा होता था। मैं तीस साल का हुआ ही था कि मेरे दादाजी ने मुझे परेशान देखा। उन्होंने अपने साथ कुछ गाने को कहा। तब तक हम इसे भीख माँगने से ज़्यादा नहीं समझते थे। मैंने बहुत बेमन से उनके पीछे-पीछे गा दिया। वो चकित होकर मुझे देखते रहे, बोले- बेटे, मैं तो समझता था मेरे साथ यह कला मेरे घर से विदा हो जाएगी पर तुझमें बहुत सम्भावना है। चल तू मेरे साथ चल कुछ दिन अभ्यास करले। ज़िंदगी बन जाएगी।

मेरे दादा प्रसिद्ध गायक सदानंद बाउल थे। उड़ीसा से उनके लिए बुलावे आते ही रहते थे। अपने साथ मुझे वो उत्तरकाशी गंगा के किनारे ले गए। रोज़ाना रात-भर हम कुटिया में अभ्यास करते थे। हमारे आस-पास अजब-ग़ज़ब साधुओं का मेला लगा रहता था। सब सुनते और अपनी-अपनी राय देते रहते थे। मुझे कभी अपनी गायकी से संतोष नहीं होता था। एक दिन एक सफ़ेद वस्त्रों में कोई संत आए। हमारी मंडली का गायन सुनकर बोले- तुम्हारा वक़्त हो चला सदानंद, ये लड़का तुम्हारा बंगाल के लिए पैदा हुआ है सबका मन रिझाएगा।

दादाजी ने एक मंडली के साथ मेरा बोलपुर का टिकट लगवा दिया और पीछे से वहीं सिधार गए। मुझे तो ख़बर बहुत दिनों बाद मिली। मेरी आमदनी अच्छी हो गयी। कुछ साल जगह-जगह हम जाते थे और रबींद्र संगीत से लोगों को प्रसन्न करते थे। एक दिन अचानक पुलिस हमारी मंडली से दो सदस्यों को ले गयी। सब परेशान हो गए। पता चला उनके सम्बंध बीरभूमि के नक्सलवादियों से थे। बस तबसे मैं अकेला हो गया। मंडली टूट गयी और मैंने ट्रेन में गाना शुरू कर दिया । हर महीने ट्रेन का पास बनवाता हूँ । बोलपुर से बर्धमान और बर्धमान से बोलपुर आता-जाता हूँ। पिछले चालीस साल से इसी रूट पर चलता हूँ।

मेरे सब बच्चे ग्रैजुएट हैं। उन्हें इस काम में कोई रुचि नहीं है। एक विश्वभारती यूनिवर्सिटी में लैब असिस्टेंट है। लड़की की शादी हो गयी। वह प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाती है। यहाँ का माहौल अच्छा है इसलिए जगह नहीं बदली।”

“आपकी रोज़मर्रा की यात्रा में ही आजीविका मिलती है, अापने ऐसे जीवन से क्या-क्या सीखा?”

“हर रोज़ की यात्रा एक नयी कहानी है अंतहीन कहानी। इतने भाँति-भाँति के लोग मिलते हैं कि अचरज होता है। ऊपर वाले तेरे कितने रंग? लोग तो अच्छे हैं ही साथ ही कुछ अफ़सर इतने बढ़िया मिलते हैं कि दिन का खाना और शाम की चाय तक पिला देते हैं। कुछ आज जैसे भी होते हैं जो सिर्फ़ झिड़क कर बात करते हैं। वैसे अच्छे लोग इस संसार में अभी भी बहुत हैं।

कोई भी पेशा अपनाओ उस पर हर रोज़ मेहनत करनी ज़रूरी है। यदि मेहनत ना होगी तो आमदनी भी अठन्नी ही रहेगी। कोई सिर्फ भजन, गीत सुनकर ही अपनी जेब खाली नहीं करता। गीत में पूरे भाव और लय में डूबना पड़ता है।

अपने पेशे को किसी से हीन ना समझो। तुम वो करते हो जो तुम्हारे निमित्त है। उसे भगवान प्रसाद समझकर स्वीकार करो।

तुम्हारी रोज़ी-रोटी चल जाए उतना भी ठीक है। चोरी, चाकूबाज़ी, छीना-झपटी, डंडाबाज़ी सब देखी है ट्रेन में, पर सबका अंत अकाल मृत्यु ही देखा।

कोई ज़रूरी नहीं कि अपने बच्चे तुम्हें पूछें या इज़्ज़त दें। पूरे दिन में एक भी यात्री प्रेम से बोल ले या इज़्ज़त करे सो ही उस परमेश्वर का नज़ारा है। जिसको संसार पूछता है उसको घरवाले मुश्किल ही….समझते हैं। प्रकृति का नियम है कोई शिकायत नहीं।

मैं सिर्फ़ राधा-गोबिंद के गीत गाता हूँ। कुछ लोग इश्क़ हक़ीकी के, सूफ़ी प्रेम के गीत गाते हैं। प्रेम की इतनी गहराई समझाते हैं कि कई दिन उनके बोल कानों में गूँजते रहते हैं।

मैंने दादाजी की तरह बहुत नाम तो नहीं कमाया पर मित्र बहुत कमाए। एक दिन भी उनके ऑफ़िस जाने से पहले ना मिलूं तो ढूँढते घर तक आ जाते हैं। अब तो कपड़े, लत्ते, दवाई, चप्पल कुछ भी नहीं ख़रीदना पड़ता। सब भेंट में ही मिल जाता है।”

हमने मुस्कुराते हुए उनसे उनका नाम पूछा- “नारायण दास बाउल।”

उस क्षेत्र के अनेक पुरस्कार विजेता…. धन्य हैं आप, धन्य है आपकी कला।

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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