बूझो तो जानी: हिन्दी – संस्कृत जानी पहचानी
लिओ तोलस्टोय और ऐंटॉन चेकोव को पढ़ने के लिए लोग रूसी भाषा सीखते हैं ताकि उनकी रचनाएँ पूरी तरह समझ सकें। उसी तरह ऋषि व्यास महर्षि और कालिदास को समझने के लिए जर्मन… जी हाँ, जर्मन संस्कृत पढ़ते हैं। ज़्यादा दूर नहीं सिर्फ़ पुदुच्चेरी घूम आइए विदेशी original संस्कृत के ग्रंथ हाथ में लिए मुस्कुराते हुए मिल जाएँगे। माहौल में संस्कृत के प्रति दीवानगी तो नहीं हाँ, ख़ुशनुमा रोमान्स है। उनके कपड़े, हाव-भाव ,व्यवहार सब पर स्वदेशी छाप यों दिखाई देती है जैसे अात्मिक तृप्ति में डूबे भारत में रमे हुए हैं और प्राचीन भारत को ढूँढ रहे हैं। और हम…? कहते नहीं थकते संस्कृत क्लिष्ट भाषा है। हिंदी लेखों में संस्कृत के उदाहरण मज़ा किरकिरा कर देते हैं। संस्कृत हमारे दादी-बाबा के ज़माने की भाषा है। मैडम, It goes over our head… प्लीज़।
Yes, दादी-बाबा ही नहीं, हाथों की पोरों पर अपनी पूर्व पीढ़ियों को गिनना शुरू करो मेरे बच्चों, दादा-परदादा, पर-परदादा, लकड़ दादा से भी पहले की भाषा संस्कृत ही है। ऐंग्लो वैदिक भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। तक़रीबन चार हज़ार साल पुराने ऋग्वेद से आज तक इस भाषा में इतना साहित्य उपलब्ध है जितनी जीवन जीने की शैली। सभी विषय अपने-अपने क्षेत्र का ज्ञान देते हैं पर साहित्य सीधे जीवन जीने की कला समझाता है। हमारे अथाह भारतीय साहित्य भण्डार का आनंद लेने के लिए संस्कृत सीखना बहुत आवश्यक है।
संस्कृत पढ़ने से हमारे पूर्वजों की प्रेरणादायी कथाओं से मनोरंजन के साथ-साथ विद्यार्थी भावी जीवन के लिए तैयार हो जाते हैं। संस्कृत में प्राचीनकाल से ही हमारे ऋषि, मुनि, विद्वान, भाषा विज्ञ सभी विश्व कल्याण की बात करते आए हैं।
हमारी विधान सभा की दीवारों पर अंकित श्लोक :
अयं निज: परोवेति, इति गणना लघु चेतसाम।
उदार चरितमाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
वह मेरा है और वह दूसरा यह सोच संकीर्ण सोच वाले लोगों की होती है। हमारे उदार चरित्र वाले व्यक्ति विश्व को अपना परिवार मानकर चलते हैं। ओबामा साहेब ने भारतीय संसद सदस्यों को इसी श्लोक से सम्बोधित किया था।
सभी की मंगल कामना हमारी संस्कृति का मूल उद्देश्य है।
पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में हम अपनी विरासत को भूल चले हैं। हमारी नई पीढ़ी हिंदी के साथ-साथ संस्कृत के महत्त्व को भी समझे और एक स्तर तक उसे भी सीखने का प्रयास करे क्यूँकि संस्कृत के सामयिक ज्ञान से शाब्दिक ज्ञान बढ़ता है। बच्चे शब्द-अर्थ व शब्द रचना समझने लगते हैं। हिन्दी को यह भाषा गरिमा पूर्ण करती है। डा. कर्ण सिंह कश्मीर के राज परिवार के वंशज हैं और अपने भाषणों में वेदों की ऋचाओं का मुक्त कण्ठ से वर्णन करते हैं। हिन्दुस्तान उनके भाषणों पर नाज़ करता है और सभी संस्थान उन्हें भारतीय संस्कृति पर भाषण देने के लिए आमन्त्रित करते हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि बच्चों को हिंदी व संस्कृत रुचिप्रद विधि से पढ़ायी जाए जिससे उनकी रुचि भाषा सीखने में बनी रहे। साथ ही साथ अपनी भाषा में बोलने की झिझक समाप्त हो जाए।
इस दिशा में कुछ वर्ष पूर्व मैंने एक छोटी सी पहल की थी कि संस्कृत बिना पुस्तक के पावर पॉइंट प्रेज़ेंटेशन की सहायता से पढ़ाई। जिसमें मुझे बहुत अच्छे परिणाम प्राप्त हुए। यहाँ तक कि बच्चे स्वयं संस्कृत से हिंदी के अनुवाद व छोटे-छोटे वाक्य भी स्वयं बनाने लगे। संस्कृत शब्दों को तत्सम शब्द समझकर उनका प्रयोग पर्यायवाची व विलोम शब्दों के लिए भी करने लगे।
उनके द्वारा लिखे गए प्रत्येक उत्तर के अनुच्छेद की बारीकी से जाँच करके उन्हें अधिक से अधिक लिखने के लिए प्रोत्साहित किया व अपठित गद्यांश के सरल उत्तरों का अभ्यास करवाकर उनके भाषा लेखन को सुधारा। इस प्रयास से मुझे आशा से कहीं अधिक अच्छे परिणाम प्राप्त हुए।
अतः मेरा अनवरत प्रयास जारी है….
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प्रोजेक्ट फ्युएल द्वारा हम चाहते हैं कि हमारे देश के गुणी एवं प्रेरक अध्यापकों को स्कूल की सीमा के बाहर भी अपने अनुभव भरे ज्ञान बाँटने का अवसर मिले। इस समूह के निर्माण से ना केवल अध्यापकों को अपनी बात कहने का मंच मिलेगा बल्कि अपनी कक्षाओं से बाहर की दुनिया को भी प्रभावित और जागृत करने की चुनौती पाएंगे। आज यह प्रासंगिक होगा कि हम एक पहल करें हिंदी के लेखकों और पाठकों को जोड़ने की।हम चाहते हैं कि पाठक अपनी बोलचाल की भाषा में कैसी भी हिंदी बोलें पर उनका शब्द भंडार व वाक्य विन्यास सही रहे। हमें उम्मीद है इस सफ़र में साथ जुड़कर अध्यापक बहुत कुछ नई जानकारी देंगे।
इसी श्रंखला में हमने आमंत्रित किया है :
श्रीमती रूपम चौधरी
कॉन्वेंट ऑफ जीसस एंड मैरी