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“आपको जिस हाल जीना है ,जीना ही पड़ेगा, मौत माँगे से भी नहीं मिलती है ।
मुझे पूरा भरोसा है ज़िंदगी ऐसीच है मैडम, मैंने बीस सालों में कई जिंदगियों को जिया है । हम सपने की तरह जी रहे थे …..जो आप खुली आँखों देखते हैं …..बहुत ख़ौफ़नाक!”

ये शब्द थे बस्तर के भीषण जंगलों से बाहर आयी एक भूतपूर्व आतंकी महिला के। बीस वर्ष तक अपने पढ़ने-लिखने के दिनों को इन्होंने नक्सलवादियों की विचारधारा से प्रभावित होकर बिताया था और जब समझ आयी तो निकलने के लिए ना जाने कितनी बार मौत का सामना करना पड़ा। इस कहानी का शेष सूत्र आगे जुड़ेगा।

रायपुर छत्तीसगढ़, शहर योजना इतनी मन लुभावन कि मन करे यहीं बस जाना चाहिए। सड़कें बहुत चौड़ी पर भीड़ थी ही नहीं। दिल्ली के प्रदूषण और सर्दी के बाद रायपुर बहुत आकर्षक लगा।
रायपुर से हम बीजापुर गए। रास्ते में बहुत सारे हरे-भरे जंगल, फसल कटे खेत और झोंपड़ियाँ जो बहुत दूरी पर थीं, झुर्रमुट कहीं नहीं था। सब बहुत दूर-दूर। जंगल इतने हरे कि शस्य श्यामला मातरम, वन्दे मातरम याद आता रहा। बहुत ही आत्मीयता से वहाँ के निवासियों ने हमारा स्वागत किया। हमें तो शहरों से दूर जंगलों के भीतर बसे गाँवों के जीवन का अध्ययन करना था। अगले दिन हम जीप से सारकेगुडा गॉंव की तरफ़ चले। यह स्थान नक्सल वादियों के द्वारा संचालित है। गॉंव वाले चावल, सब्ज़ियों की खेती करते हैं, मुर्ग़ियाँ पालते हैं और जंगल की उपज तेन्दु पत्ता, तरह-तरह के कंद मूल, शहद, बेर, इमली, तालाबों से पकड़ी मछली इत्यादि बेचते हैं, पास ही में आयरन ओर की खदानों में मजदूरी भी करते हैं।

वातावरण में भय मिश्रित कसावट निरीह चेहरों पे साफ़ दिखी। सबसे ज़्यादा चिंतित करने वाला फ़ैक्टर था गोदी के बच्चों से लेकर बड़े-बूढ़ों तक के कुपोषण से प्रभावित शरीर। गॉंव में अंदर सिर्फ़ अध्यापक या नर्सिंग स्टाफ़ जा सकता है। दवा-दारू के लिए गाँव वाले मीलों चलकर शहर ही आते हैं। सरकारी कर्मचारी हिम्मत भी करें तो गाड़ियों से उतारकर नृशंसता से मार दिए जाते हैं। भय का मानवीकरण हमें हर चेहरे पर छपा दिखा। कहानियाँ इतनी कि सुनते रहिए अंतहीन।

कुपोषित बच्चों को देखकर मन करता है यहाँ से अब so called सभ्य दुनिया में जाकर क्या करना है, काम तो यहीं बहुत है। हमारी उपस्थिति जानकर दूर दराज़ से सरपंच और कई पीड़ित लोग आए, उनकी हृदय विदारक आपबीती सुनकर मन बहुत उद्वेलित हुआ। २६ जनवरी के लिए सड़क के पास का स्कूल झंडारोहण की तैयारी कर रहा था, साथ ही मान्धर ढोल बज रहा था। सड़क पर हाट की चहल-पहल, स्कूल में स्टेज पर नाचते क़दम से क़दम मिलाते कुछ बच्चे सब कुछ तो वही था जैसा हमारे यहॉं, पूरा दृश्य एक मूवी के स्क्रीन जैसा, लेकिन पुलिस फ़ोर्स की उपस्थिति परदे के पीछे ग्रीन रूम में कितने लोग चौकस खड़े हैं, दिखा रही थी। हम सड़क पर खड़े उसका आनंद लेते रहे। पूरे क्षेत्र में एक ही पक्की इमारत मिली जहाँ हम जाकर बैठे। बहुत से लोग कुछ ज्ञापन भी लेकर आए। उन्हें लेकर जो स्त्री बार-बार आती थी उसकी चाल और सुगठित शरीर कुछ अलग लग रहा था, पूछने पर उसने अपना नाम कर्मा लखमी (गुप्त)बताया। उसके साथियों ने बताया, मैडम ये पहले बीस वर्षों तक नक्सलवादी थीं। अब आत्म समर्पण करके हमारे साथ काम करती हैं। हमने उन्हें अपने पास बैठाया उनके बारे में पूछा, आपको बाहर आने की प्रेरणा कैसे मिली? उस जीवन से क्या सीखा?

आपको जिस हाल जीना है जीना ही पड़ेगा मौत माँगने से भी नहीं मिलती। मुझे शायद जीना था।कितनी बार लगा शाम तक नहीं बचूँगी पर मौत ने ख़ुद मुझे धक्का दे बचा दिया। गॉंव में माँ पिताजी बहुत कमज़ोर थे। मेरे तीन भाई थे। पिताजी को आँखों से कम दिखायी देता था। जब नक्सली आते मेरे भाई भाग जाते थे, उनकी मीटिंग में मेरे पिताजी पर दबाव बढ़ रहा था कि एक बेटा भेज दो। वो अंदर से तैयार नहीं थे। शहर में हमारा कोई नहीं था। एक भाई बहुत बीमार व कमज़ोर हो गया। दूसरा मानता नहीं था और तीसरा छोटा था। गॉंव में सभी मुझे तगड़ा मानते थे। मैं घर का सभी काम करती थी। उन्हें भी पता चल गया, मैं बारह साल की हुई, मुझे जंगल ले गए। पिताजी बहुत गिड़गिड़ाए पर उनकी नहीं सुनी। मेरा डील-डौल देखकर जाते ही हथियार विभाग में डाल दिया। मुझे १२ बोर की गन दे दी। उस समय डेढ़ साल तक मुझे अपने ट्रेनिंग स्कूल में पढ़ाया। गन उठाना-चलाना सिखाया। गन से मुझे डर नहीं लगता था। मैं सहेली जैसा मानती थी। एक बार गन लिए हुए मैं ऐसी जगह गिरी जहाँ गहरा गढ्ढा था।जंगल इतने घने कि दस फ़ीट पर भी नहीं दीखता था, मेरे ऊपर पत्तियाँ झाड़ियॉं सभी गिरी थीं। पहले दो तीन घंटे मैं बेहोश रही, चिल्लाने की भी हिम्मत नहीं थी। लग रहा था मैं यहीं खतम हो जाऊँगी पर शायद मेरी कामरेड मुझे ढूंढ रही थीं। वो बार-बार रस्सी फेंकती थी मैं बहुत मुश्किल से उसे पकड़ कर बाहर आयी।

उस समय माहौल ख़राब नहीं था।हम एक ख़ास विचारधारा को मानते थे। ख़ून ख़राबा कम था। धीरे-धीरे माहौल बदलता गया। वहाँ भी अब हम बहुत दबाव में थे। मुझे माता-पिता का ख़याल हर समय बना रहता था, गाँव जाने की इजाज़त नहीं थी। मुझे बहुत दूर भेज दिया गया था, कहीं दंतेवाड़ा के जंगलों में। अब मेरे पास ३*३ gun थी। मैं नयी लड़कियों को ट्रेनिंग देती थी। जंगल के सभी रास्ते पहचाने हुए थे। उनमें से मेरे घर की तरफ़ देखने की भी इजाज़त नहीं थी। ख़बरें आ जाती थीं सब ज़िंदा हैं इसी से बस हो जाती थी। इस बीच बहुत कुछ देखा। मुझे SLR गन मिल गयी थी।दिमाग़ सुन्न था। उनकी बातों से लगता था कि मर गए तो अपने गाँव और लोगों के लिए शहीद होंगे। हमारे लिए वो शहीद स्मारक बनाएँगे। हमारे लोग हमारी ज़िंदगी की कहानी पढ़ेंगे। “जंग ही जिनकी ज़िंदगी थी” पुस्तक में हमारी कहानी छपेगी, ऐसा ही कुछ सपना देखते थे हम दिन रात। एक दिन अचानक मुझे उनकी डायरी मिली जिसमें पैसा उगाही की रिपोर्ट लिखी थी छोटा-मोटा हिसाब नहीं था। मैडम,लाखों की उगाही के आँकड़े थे। मैं सब छद्म नामों को पहचानती थी। इतना पैसा आता था और कहॉं जाता था कोई ख़बर नहीं। सभी गाँव के स्कूल तोड़ दिए थे टीचर आ ही नहीं सकते थे। बहुत सी बातों से मन दुखी रहने लगा। खाने को मिलता था पर शरीर सूखने लगा। ऊपर वाले से भरोसा उठ रहा था। तभी मैं अपने होनेवाले husband से मिली। बहुत अच्छा लगने लगा। मन में अच्छी ज़िंदगी का बीज पनपने लगा। पता चला शादी होते ही husband को आंध्रा प्रदेश जाना पड़ेगा। हम बच्चों की सोच भी नहीं सकते थे। वहॉं ऑपरेशन का इंतज़ाम था। हम डर गए।पर इस डर के आगे हमने कड़ा निर्णय लिया और SP साहेब के सामने आत्म समर्पण कर दिया। बाहर आकर देखा कि दुनिया ही बदल गयी है। टीवी देखती हूँ तो लगता है हमारे गाँव के ध्वस्त स्कूल का उद्धार कब होगा? कब शिक्षा आएगी? कब देश से जुड़ेंगे?

The Protagonist of this post.
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बहुत से लोग काम कर रहे हैं। कुछ जीवन खोकर भी गाँव- गाँव का भला करना चाहते हैं। कुछ मिले हुए हैं गॉंव वालों को शिक्षित नहीं होने देना चाहते। मेरी जैसी पचास से साठ प्रतिशत कामरेड लड़कियाँ अब भी जंगलों में जी रही हैं। कुछ हालातों से मजबूर, कुछ अशिक्षा के कारण। अभी बहुत कुछ होना है।

हॉं, लखमी बहुत दृढ़ राजनीतिक, शैक्षिक और सूचना विभागों में इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। क्या कहते हैं…. Strong political will तभी कुछ बदलेगा। तुमने इस जीवन को स्वयं जिया है।तुम अग्नि परीक्षा में खरी उतर आयीं अब बारी है हमारी, जागरण गीत हमें गाना है। प्रगति की मशाल हमें उठानी है। आमीन!

Featured Image Courtesy: Pulitzercenter.org

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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