हा हा , हाँ यही है ज़िंदगी
सुबह-सुबह पेड़ों की पत्तियों से छनकर आती सूर्य की किरणें कुछ चमत्कारिक आभास दे रही थीं। यदा-कदा कुछ लोग पार्क में घूमते दिख रहे थे। यहाँ लगे पेड़ कम से कम सौ डेढ़ सौ साल पुराने होंगे। उनके पुख़्ता तने के चारों तरफ़ फैली टहनियाँ और उन पर कूंजती कोयल मौसम बदलने का साफ़ संकेत दे रही थी। तभी कहीं से कमज़ोर ठहाकों की आवाज़ ने ध्यान भंग किया, देखा एक बुज़ुर्ग दम्पति बच्चों की चकरघिन्नी पर एक पैर रखे घूमने का प्रयास कर रहे थे।कभी पत्नी ज़ोर लगातीं कभी पति। वातावरण हल्की ठंड और ओस के बीच से आती हँसी से गुंजायमान था। प्रसन्नचित्त दोनों ही अपने बचपन में लौट आनंद से भरपूर हंस रहे थे।
मन में विचार कौंधा, इन बुज़ुर्गवार ने अच्छा-खासा जीवन जी लिया है। पर बचपने की यादें इनको कितना प्रफुल्लित कर रही हैं, ऐसा क्या है जो छोटी सी हरकत इन्हें टाइम कैप्सूल की तरह बचपन में लौटा ले गयी और ये आनंद से भर उठे। अद्भुत! कितने लोग बड़प्पन के आवरण में ऐसा सुख ले पाते हैं? हम उनकी तरफ़ बढ़े हमारे नज़दीक जाते ही वे जैसे तुरंत वर्तमान में चले आए और सहज व्यवहार करते पार्क की कुर्सियों पर बैठ गए। मैंने आज्ञा लेकर बात करनी शुरू की। मेरे पूछने पर बोले, कभी-कभी हम ऐसे ही ऊलज़लूल बचपने की हरकतें कर लेते हैं। उनके साथ हमारी और बच्चों की बहुत सी यादें जुड़ी होती हैं जो सिर्फ़ मैं और मेरी पत्नी ही जानते हैं। घर में बैठे ऐल्बम पलटते-पलटते ख़याल आ गया कि चलो पार्क में अपनी स्मृतियों को दुबारा जिएँ। इससे सुबह-सुबह की वॉक हो जाती है। पेड़ों का पतझड़, नयी कोंपलों का आना, सूरज की दिशा बदलना, हवा में बौर की सुगंध फैलना और हर मौसम में अलग-अलग चिड़ियों का चहचहाना हमें बहुत आनन्दित करता है। ये थोड़ा अलग मिज़ाज की हैं इन्हें बच्चों-सा खेलना- कूदना अच्छा लगता है। मैं उसी को सहारा दे देता हूँ। बस, ऐसे ही आनंद मिल जाता है ।