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“It is not enough simply to pray.There are solutions to many of the problems we face. New mechanisms for dialogue need to be created, along with systems of education to inculcate moral values.These must be grounded in the perspective that we all belong to one human family and that together we can take action to address global challenges.”

This is an excerpt from “Why I am hopeful about the world’s future” by Rev Dalai Lama.

आज विश्व तेज़ी से अशांति की ओर बढ़ रहा है। उसमें महामना दलाई लामा के ये शब्द मरहम की तरह लगते हैं। सुझाव अनेक हैं शांति वार्ताओं की तरफ़ बहुत प्रयास किया जा रहा है पर सुलगते सीरिया, अफगानिस्तान, लिबिया कहीं आग ठंडी होती दिखायी नहीं दे रही। विश्व में सबसे शान्त देश आइसलैंड है और सबसे अशांत देश सीरिया। अशांति का कारण आतंकवाद,राजनीतिक अस्थिरता और आंतरिक विवाद है। प्रतिदिन आती ख़बरें, वीडिओ, भयावह तस्वीरें अब अखबारों के मुखपृष्ठों की जगह अंदर के पृष्ठों पर जा बैठी हैं। “अब क्या करें, रोज़ की यही कहानी है” जैसे जुमले लोगों की ज़ुबान पर आ बैठे हैं।

सन २०११ से लेकर आज तक मिडल ईस्ट में लगभग सभी देशों में सरकार की अराजकता से जनता का विद्रोह भड़का है। इसमें सभी अरब लीग देश लेबेनान, ईजिप्ट, सीरिया, ईराक़, ईरान, बहरीन, उत्तरी माले, येमन प्रभावित हुए। सन २०११ से आज तक इन सभी देशों में सिविल वार ने सर उठाया। स्थानीय अस्थिरता बढ़ी। आर्थिक, सामाजिक क्षति हुई। तक़रीबन १/४ मिलियन मौतें हुईं और १६ मिलियन लोग ज़बरन अपने स्थान छोड़कर भागे।इस परिस्थिति को अरब विंटर के नाम से जाना जाता है जिसमें तक़रीबन ८०० बिलियन US डॉलर की बर्बादी हुई। इस राजनीतिक उथल-पुथल में हिंसात्मक कार्यवाही इतनी हुई कि इन देशों की जनता ने दूसरे देश में शरण लेने जाना बेहतर समझा। ख़ुशहाल जीवन सिर्फ़ ज़िंदा रहने की कगार पर पहुँच गया। देश छोड़कर भागने वालों के पास वीज़ा ज़रूरी काग़ज़ कहाँ से आते। जिसको जो तरीक़ा सुलभ हुआ वो उसी तरह निकला। कोई नाव के ज़रिए, कोई गाड़ियों में छिपकर, कोई समुद्री रास्तों से यूरोपियन यूनियन के देशों में शरणार्थी बने। हमारे इस सभ्य संसार में ऐसी परिस्थितियाँ पहली बार नहीं आई हैं। जब-जब इंसानों की इंसानों के प्रति पाशविक प्रवृत्तियाँ और हिंसा बढ़ी तब- तब लोगों को सुरक्षा के लिए भागना पड़ा।

भारत के २०वीं सदी के इतिहास पर नज़र डालें तो तिब्बत विद्रोह बहुत पुरानी बात नहीं है। जो १० मार्च १९५९ में शुरू हुआ फलस्वरूप दलाई लामा सहित हज़ारों तिब्बती उत्तरी भारत में आकर बसे या १९७१ में पूर्वी पाकिस्तान से आकर हज़ारों बंगाली शरणार्थी पूरे भारत में फैल गए। श्री लंका में तमिल और सिंहालिस के झगड़े में तकरीबन १ मिलियन लोग मारे गए। १९८३ से शुरू हुआ झगड़ा २००९ में जाकर ख़त्म हुआ जब श्री लंका की आर्मी ने पूरी तरह दमन चक्र चलाया।वहाँ से भी तमिल शरणार्थी भारत ,यूरोप और अमेरिका तक फैले।

बात यह नहीं कि कब कहाँ क्या हुआ। इन सभी देशों के संघर्षों में रोज़ाना हज़ारों निर्दोष जाने गयीं। आतंकवाद फैला, बच्चों के स्कूल छूट गए दो से तीन पीढ़ियाँ चपेट में आ गयीं और अनेक नागरिक रिफ़्यूजी बन गए। किसी रिफ़्यूजी से पूछिए आपको रिफ़्यूजी शब्द कैसा लगता है? तुरंत जवाब मिलेगा ‘गाली’की तरह, हीनभावना से भरपूर। उनके शरीर पर आया तनाव और गीली आँखें, सब कुछ कह जाती हैं।

This is what I read somewhere by Bryant Mc Gill:
No one wants to suffer
No one wants to be lonely
No one wants to live in fear
No one wants to lose everything
No one wants their heart ripped to shreds
No one wants to be sick
And no one wants to die
But these things happen in life
So the least we can do is be there for others
As we would like others to be there for us…..

जब हम चारों तरफ़ देखते हैं तो देश के युवा ही हमें विद्रोह की आग में धधकते नज़र आते हैं। सिविल वार शुरू ही युवाओं के आक्रोश से होती है और सरकारें हमेशा दमन चक्र चलाने की ग़लती करती हैं। किसी को अन्य कोई तरीक़ा कभी नहीं सूझता। यूनाइटेड नेशंज़ भी तभी समझौता करवाने का प्रयास करता है जब बात कई देशों की गठबंधन सेना (coalition forces) तक पहुँच जाती है। श्री लंका पहला देश है जहाँ बगावत (insurgency) समाप्त की गयी। इसका कारण है कि इन देशों में हम और आप जैसी एक इकाई आम जनता ही शांति का अर्थ समझने में भूल कर रही है। जिस समाज में एक दूसरे के लिए त्याग, समझदारी, सहन करने की क्षमता और आपसी बातचीत करने की परम्परा हो वहॉं शान्ति अवश्य होगी। जब हम स्वयं अपने दायरे में शांति रखने का प्रयास करेंगे तभी समाज शांति प्रिय समाज में बदलेगा।

आज के संदर्भ में उतने ही peace makers या मध्यस्थता में माहिर लोगों की ज़रूरत है जितने संघर्षरत समुदाय। हमारी आज की पीढ़ी मीडिया से पूरी तरह प्रभावित है जो मीडिया दिखाएगा वैसी उनकी मानसिकता बनती है। कहीं भी कोई भी संघर्ष शांति मार्च से जीता जा सका जैसे पैलेस्तीन के ज़मीन्दारों ने इसराइल से बॉर्डर का मतभेद जीता, ये ख़बरें मीडिया सुर्ख़ियों में नहीं लाता। इन्हें यू टूब या टेड टॉक या बेटर वर्ल्ड में ढूँढना पड़ता है। मीडिया की भी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि संसार में जो कुछ शांति से सकारात्मक क़दम उठाए जा रहे हैं उन्हें ख़ूब गर्मजोशी के साथ समाज के सामने लाएँ।

मुझे लगता है कि अगर दूसरे के दुःख में इंसान ख़ुद दुःख महसूस ना करे तो उसमें मानवता के गुण नितांत कम हैं। इन सभी देशों की समस्या को ध्यान से देखें तो पता चलता है कि एकदम शुरुआत हिंसा से नहीं हुई थी। देश के लोगों ने शांति पूर्वक मार्च किए थे, आवाज़ उठायी और कुछ ख़ास बदलाव की माँग की। उनकी बात शासकों तक पहुँची पर ग़लत अन्दाज़ में। यहाँ रोल आता है सरकार के सलाहकारों का और समाज के सम्भ्रान्त लोगों का। अगर ये परिस्थिति को अपने स्वार्थ में बदलना चाहते हैं और शासक के सामने युद्ध ही विकल्प बताते हैं तो अवश्य ही झगड़े की स्थिति बनेगी। यहाँ मध्यस्थता करने वाले शांत स्वभाव के लोगों की आवश्यकता थी। उस विद्रोह का उत्तर सरकारी सैनिकों ने दिया और मामला बंदूक़ों की भेंट चढ़ गया। यहीं से सब तरफ़ हिंसा शुरू हुई और इस मौक़े का फ़ायदा उठाकर आतंकवाद का पर्याय IS इस्लामिक स्टेट नामक आतंकवादी ग्रुप सक्रिय हो गया। उन्होंने जगह-जगह कई क्षेत्र अपने क़ब्ज़े में ले लिए और आम जनता को अपनी फ़ॉर्सेज़ में भर्ती होने के लिए ज़बरदस्ती करने लगा। IS की गतिविधियाँ रोकने के लिए बीच में अमेरिका, फ़्रान्स, इंग्लैंड ने अपनी फ़ौजें भेजीं। इतनी बात बढ़ गयी तब जेनिवा शान्ति-वार्ता की गयी। पहले ही अगर सीज़फ़ायर और आराम से बात की जाती तो पहले विद्रोह के स्तर पर ही मामला सुलझ सकता था। यूनाइटेड नेशंज़ तक बात पहुंचती ही नहीं। IS को अपनी ताक़त दिखाने का मौक़ा ही नहीं मिलता। परिणाम सामने है तक़रीबन चार मिलियन शरणार्थी यूरोपीयन यूनियन के देशों की तरफ़ बेबसी में पहुँच चुके हैं।

अधिकांशतः देखा गया है कि एक पीढ़ी सिर्फ़ मुसीबतों से टक्कर मारते-मारते विलीन हो जाती है। अगली पीढ़ी का भविष्य बनाने में अपना आज खो देती है।

आइए,क्यूँ ना हम एक नया क़दम उठाएँ। कुछ ऐसा सोचें कि सकारात्मक रूप से अपने आस-पास होने वाले जाति, धर्म, सम्प्रदाय के झगड़ों को रोकने का प्रयास करें। हम सबको किसी ना किसी रूप में पीस negotiator बनना पड़ेगा।

अपने क्षेत्र में प्रभावी मध्यस्थता करवाने वाले लोगों की पहचान करें। उनके साथ समय आने पर काम करें।आनेवाले समय में शान्ति दूत हर क्षेत्र में आवश्यक होंगे।

Abundance of love and understanding is required.We can go past those false beliefs by saying yes to love. And where there is love there is peace.

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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