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टर्की के तटपर आएलान कुर्दी की तस्वीर देखकर संसार सन्नाटे में घिर गया- फ़ोटोग्राफर निलोफर डोमर ने कहा
“Scream of migrant boy’s silent body”.

आएलान कुर्दी पूरे विश्व को जगा गया। २ सितम्बर २०१५ की रात यह तीन साल का बालक अपने माता-पिता और भाई के साथ टर्की के बोदराम स्थान से नाव द्वारा ग्रीस की तरफ़ चला। नाव प्लास्टिक की थी और लाइफ़ जैकेट नक़ली। उस नाव पर बारह लोग सवार थे। आएलान के पिता ने भी नाव में चार सीट लेने के लिए तक़रीबन ५, ८६०$ दिए थे। पाँच मिनट बाद ही नाव डूब गयी। बॉर्डर के पास होने के कारण शव वहीं आस-पास रेत मे धँस गए। सुबह छह बजे नाव डूबने की ख़बर मीडिया में आ गयी। रेफ़्यूजीस की बेबसी इससे अधिक कभी चर्चा में नहीं आयी थी।

सभी ने इस दुर्घटना के लिए ख़ुद को ज़िम्मेवार माना। सभी देशों के राष्ट्रपति और प्रमुख अंदर तक हिल उठे। बहुत सी प्रार्थनाएँ और शांति वार्ताएं की गयीं। बहुत से संगठन और NGOs आगे आए। डा. वाइदाद अक्रावी, President of Defend International ने सबको बराबरी का ज़िम्मेवार बताया। उन्होने कहा, “अंतर्राष्ट्रीय समाज समानता से इन refugees की ज़िम्मेवारी ले।उन सिद्धान्तों के आधार पर जो उन्हें बचाने की, सहायता करने की और सम्हालने की पैरवी करते हैं,जो अंतर्राष्ट्रीय एकता और मानव अधिकारों के अंतर्गत आते हैं।”

एक daily radio प्रोग्राम में प्रसारित हुआ कि आयलन कुर्दी सीमा रहित संसार बनाने की प्रेरणा दे गया।

इन रेफ़्यूजीस की मानसिक स्थिति का अंदाज़ा लगाएँ। अधिकांश के घर जब बमबारी से बर्बाद हुए, घर के सदस्य उसमें आहत हुए या मृत्यु हो गयी। उन क्षणों में उन्होंने सब कुछ छोड़कर बचे हुए सदस्यों के साथ भागने की सोची। देश से भागने के लिए एजेण्ट ढूँढे और पैसे की बर्बादी हुई। इन लोगों के कुछ सदस्य ऐसे भी थे जिन्हें मजबूरी में छोड़ना पड़ा।

एक रिफ्यूजी परिवार की आपबीती:-
“ISIS was on its way to our village. Everyone was rushing to another village. There was not enough room in the car taking us. Children and old people were evacuated first. My sister got left behind. She couldn’t find any space in any of the cars. And they kidnapped her. It’s been two years since we heard about her last. We don’t know if she is still in Iraq or has been trafficked to some other place. My mother sits here all day thinking about her and cries uncontrollably”

Jalal's

ये कहानी है पचपन वर्षीया श्रीमती नाम की जिनकी बेटी गाँव में ही छूट गयी थी। बाद में पता चला कि IS के सिपाही उसे बंदी बना कर ले गए। इनकी एक ही ख़्वाहिश है कि अपने सब बच्चों को सुरक्षित एक साथ देख सकें।

ये सभी लोग जान हथेली पर रखकर ना जाने कितने मुश्किल तरीक़ों से कहीं छिपकर ,कहीं वेश बदलकर,कभी भूखे रहकर,कभी बेइज़्ज़ती सहकर पूरी तरह असमंजस में डूबे जब दूसरे देश पहुँचते हैं तो समय एक महीने से पाँच-छह महीने तक गुज़र जाना आम बात है।वहाँ भी देश की सीमा में घुसने के लिए अनेकों दिक्कतों का सामना करना होता है।कैम्प्स में रहना कोई आसान बात नहीं है। जीने के लिए जितना कुछ चाहिए वह भी नहीं मिलता।इसीलिए प्रोजेक्ट फुएल टीम ने जब स्कूल के बच्चों से रेफ़्यूजीस के लिए संदेश माँगा तो

साई तेजस चित्तापल्ली ने लिखा:
“Expect nothing and accept everything”.

कुछ भी आशा मत रखो और जो मिल जाए सहज स्वीकार करो।

जिस देश पहुँचे वहाँ की सरकार और नागरिकों का सहयोग सभी को नहीं मिलता। उन्हें अन्य देशों के दरवाज़े खटखटाने पड़ते हैं। इन सब परिस्थितियों से जूझते शरणार्थी अपने देश की ख़ुशहाल यादें, संस्कृति, रीति रिवाज, रिश्तेदारियाँ, उत्सव सब अपने साथ लेकर आते हैं। पर सबसे पहले चिंता सताती है रोज़ी-रोटी की। समय यूँ ही फिसलता जाता है।

बहुत चर्चाएँ हो रही हैं कि शेनेगन देशों में इतने मिलियन रेफ़्यूजीस आ चुके हैं। इसका प्रभाव उन सभी देशों की आर्थिक स्थिति पर पड़ रहा है। युरोपियन देशों की स्थिति फिर भी सीरिया के पड़ोसियों से कहीं बेहतर है। टर्की, लेबेनान, जॉर्डन स्वयं ही इस युद्ध से आए अनेकों शरणार्थियों को स्वीकार कर चुके हैं इनकी संख्या उनकी बिसात से कहीं ज्यादा है। युरोपियन देश समझ चुके हैं कि उनके पास मज़दूरो, कामगारों की बहुत कमी है। २०२५ तक आधे से अधिक युरोप वृद्धावस्था में आ जाएगा। आज जो ये इंसानी आतंक से शुरू हुआ विस्थापन (migration) है वह प्राकृतिक (blessing in disguise) होता जा रहा है। अगर इन शरणार्थियों को सम्हाल लिया जाए तो आनेवाले समय में देश के बहुत से काम ये ही सम्हालेंगे। सीखी-सिखाई मैनपावर आपके दरवाज़े पर शरण माँग रही है। आज आप प्रेम पूर्वक स्वीकारिए कल ये ही आपके समाज में रिक्त स्थानों की पूर्ति करेंगे।

२०१५ के क्रिसमस सन्देश में आएलान कुर्दी के पिता अब्दुल्ला कुर्दी ने चैनल ४ पर यूरोप से अपील में कहा,
“अगर किसी शरणार्थी के मुँह पर आप दरवाज़े बन्द करते हैं तो ये बहुत मुश्किल वाली बात है, जब कोई दरवाज़ा खुलता है तो व्यक्ति अपमानित महसूस नहीं करता। साल के इस मुबारक मौक़े पर मैं अपील करता हूँ कि आप उन पिताओं, माताओं और बच्चों के लिए सोचिए जो आपसे शांति और सुरक्षा की कामना कर रहे हैं। हम आपसे बहुत थोड़ी सी सहानुभूति माँग रहे हैं। आशा करते हैं कि अगले वर्ष तक सीरिया में युद्ध समाप्त हो जाएगा और पूरे विश्व में शांति बहाल हो जाएगी।”

काश! ऐसा ही हो…….

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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