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पूरे अखरोट की साबुत गिरी हाथ में लिए मैं उसकी बनावट और नसों की तुलना मानव मस्तिष्क से कर रही थी कि वाट्सएप पर बहुत ही सुंदर तस्वीरों का पावर पॉइंट मैसेज आया जिसमें संकेत था कि मनुष्य अहंकार में अपने को सबसे ऊँचा दिखाने का प्रयास करता है और ब्रह्माण्ड के संदर्भ में उसका अस्तित्व कितना है?

कुछ वर्ष पूर्व पढ़ी एक रिपोर्ट अनायास ही याद आ गयी। उसमें सैन डिएगो के एक खगोल शास्त्री ने कम्प्यूटर सिम्युलेशन के द्वारा सिद्ध किया था कि ब्रह्माण्ड एक अति विशाल मस्तिष्क की तरह काम कर रहा है और बढ़ रहा है। अद्भुत! पर यह महती मस्तिष्क है किसका? क्या हम इसके नन्हे-नन्हें ब्रेन सेल्ज़ हैं जो महत्तम मस्तिष्क के हिस्से हैं? गीता में भी कहा गया है जो कुछ घटित हो रहा है उसमें मैं ही अवस्थित हूँ। ये मैं कौन है? क्या अर्जुन इतने भाग्यशाली थे कि परम ब्रह्म ने उन्हें अपना संदेश सुनाया। वो भी आज से पाँच हज़ार साल पहले। ब्रह्माण्ड में हमारा अस्तित्व छोटा है पर है अवश्य!

बहुत मज़ेदार तथ्य है कि जैसा ब्रह्माण्ड है वैसा ही मनुष्य मस्तिष्क जो लगातार नए -नए क्षितिज पार कर रहा है। जैसे-जैसे मनुष्य ने स्पेस पर विजय प्राप्त करनी शुरू की वैसे-वैसे आदि क़ालीन ऋषियों, मुनियों, वैज्ञानिकों की बातें सत्य प्रमाणित होती गयीं। ब्रह्माण्ड अंडाकार है। ऐसी परिकल्पना की गयी जिसमें सही में बहुत सी आकाश गंगाएँ और बहुत से सूर्य अपनी-अपनी कक्षाएँ बनाए घूम रहे हैं। पश्चिम के खगोल शास्त्रियों ने पाया कि ब्रह्माण्ड में जोड़ने वाले बहुत से कनेक्टिंग पॉइंट्स हैं, वैसे ही हमारे मस्तिष्क में भी न्यूरोंस हैं। सभी में आश्चर्यजनक समानता है।” जैसा बाह्य जगत है वैसा ही सूक्ष्म जगत है”, भारत में यह अवधारणा प्राचीनकाल से ही चली आ रही है।

‘बिग बैंग’ थ्योरी क़रीब १४ बिलियन वर्ष पूर्व घटी और इस पर शोध की रिपोर्ट ३ वर्ष पूर्व कम्प्यूटर सिम्युलेशन के द्वारा आयी। उनमें मनुष्य मस्तिष्क के तन्तुओं में इलेक्ट्रिकल वाइरिंग वैसी ही पायी गयी जैसे असंख्य आकाश गंगाओं के मध्य जुड़ाव। हमारे पुराणों में भी कहा गया है “यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे” अर्थात मस्तिष्क का फैलाव, सोच ,विचार, अंतहीन है। हमारे वातावरण में, हवा में जोड़ने वाले कैरियर अदृश्य हैं तब भी मनुष्य ने उनका उपयोग फ़्रीक्वेन्सी मेगा हार्ड्स द्वारा संसार को पूरी तरह जोड़ दिया है। बस, अब अगर युद्ध स्तर पर कार्य करना है तो वह है सामाजिक बढ़ते द्वेष को जड़ से उखाड़ना। धर्म, सम्प्रदाय, देश, पूर्वाग्रह से ऊपर उठने का वक़्त आ चुका है-

विचारों को इतना ऊँचा उठाना है…….

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है।…….
नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो
नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो
नये राग को नूतन स्वर दो
भाषा को नूतन अक्षर दो
युग की नयी मूर्ति-रचना में
इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥

*******************(श्री द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी)

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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