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मणिकर्णिका घाट के पीछे दीपक, अनिता और मैं बहुत सी गलियाँ, ऊँची हवेलियाँ और दरवाज़ों में बने छोटे दरवाज़े पार करते चले गए पर हमें आज का लक्ष्य काशी लाभ भवन कहीं ना मिला। उसके बहाने ज़रूर हमने सदियों से बसे वाराणसी के असली दर्शन किए। आज से तीन हज़ार साल पुराना शहर का नक़्शा कैसा रहा होगा उसकी तो ख़ास पहचान शायद इस शहर के नीचे दबी कई सभ्यताओं के चिन्हों में दिखे पर हाँ, मुग़ल शासन के समय का वाराणसी बख़ूबी पहचाना जा सकता है। अब हारकर हमने सोच लिया कि चलो घाट पर चलते हैं, बैठेंगे। तभी एक अनजान सा चेहरा एक बहुत ही छोटे से दरवाजे की दुकान से झाँका जैसे दुकान घर की एक ख़िड़की से चलायी जा रही हो। मुँह में भरे पान के रसे से सराबोर ज़ुबान दबा के हमें इशारे से बुलाया,”आप काशी लाभ, काशी लाभ कर रहे हैं वो गंगा लाभ भवन है। बंद पड़ा है। इस गली में चलते चले जाइए बस कोने पर ही मिल जाएगा, दो गली पार करके।” दीपक और अनिता के चेहरे खिल उठे और हम धन्यवाद कह तेज़ी से आगे बढ़ गए।

गंगा लाभ भवन हमें देखने में बहुत विशाल लगा। उसके आस-पास इतनी इमारतें खड़ी हैं कि भवन दब सा गया है। रोज़मर्रा की १५० चिताओं का धुआँ उसके गलियारों में, कमरों में, ख़िड़कियों पर परत दर परत जमता चला जा रहा है। हर कमरे का बंद दरवाज़ा अपने गर्भ में छिपी असंख्य कहानियों का सूत्रधार सा लगता है। हज़ारों हाथों ने इसे खोला होगा। अपने किसी परिजन के लिए कमरा व्यवस्थित किया होगा और उसके प्रयाण के बाद गहरी उदास, नम आँखों से खाली कर दिया होगा। ना जाने कितनी जिंदगियाँ यहाँ से शव यात्रा के लिए निकली होंगी। एक रहस्यमयी चुप्पी इस भवन की करूण गाथा की प्रतीक है।

भवन की स्थिति बहुत बदहाल है। कहीं मरम्मत या लिपाई-पुताई का बरसों से कोई चिन्ह नहीं दिखता। अब यहाँ वही लोग आते हैं जिनके पास अन्य कोई साधन नहीं होता। श्री ओम् प्रकाश दुबे इसके संचालकजी ने हमें बताया कि पैसा तो है पर अब गंगातट के २०० फ़ीट के अंदर आने से इस इमारत को कब तक मोहलत मिलेगी इसका कोई पता नहीं। सेठजी इस पर बिलकुल पैसा ख़र्च करने को तैयार नहीं हैं। इसलिए जबतक है, लोग आ ही जाते है। देखते हैं रहना चाहें तो स्वागत है अन्यथा कहीं और जाएँ। हम यहाँ रहने का कोई पैसा नहीं लेते। जाइए, आप ऊपर जाइए देख आइए।

एक जाने-पहचाने चायवाले की मदद लेकर हम जीना चढ़ गए। सब कमरे बंद ही दिखे तभी एक दरवाज़ा आधा खुला और आँखों में प्रश्न चिन्ह लिए एक २५-३० वर्षीय युवक ने झाँका। हमें आशा बंधी कि आज हमें ज़रूर कोई मिल जाएगा। हमारे साथी ने उससे बात की तो उसके चेहरे पर अर्ध चंद्राकर मुस्कान खिल उठी, दरवाज़ा पूरा खोल दिया और हमारा स्वागत किया। हम एक खुले आँगन में आ गए। तीन तरफ़ कमरे थे और बीच में बरामदा था उसमें खड़े दो पिलर पुराने आर्किटेक्चर के नायाब नमूने। कमरे बंद थे एक ख़िड़की भी खुली नहीं थी और ज़मीन पर बिस्तर पर बैठी उसकी माँ कुछ खाने का प्रयास कर रही थीं। हमने इंतज़ार किया। युवक से बात-चीत शुरू की।

उसने अपना नाम सुनील दत्त द्वारी बताया। उम्र ३० वर्ष, हिमाचल की किसी दवाई बनाने वाली कम्पनी में काम करता था, पर माताजी की बीमारी बढ़ने के कारण नौकरी छोड़कर घर वापस आ गया। पिताजी श्री सुधांशु दत्त तिवारी नवादा जेल बिहार में सिपाही हैं। माताजी को यूटरस कैंसर हुआ और बढ़कर लिवर तक फैल गया। पटना मेडिकल कॉलेज के बाद, BHU मेडिकल कॉलेज से भी जब जवाब मिल गया तब यहाँ ले आए। लिवर पूरी तरह प्रभावित है खाना पच नहीं रहा है पर खाने की इच्छा बहुत है। सुनील वहीं खाना बनाके खिला रहा था। जो इच्छा ज़ाहिर करती थीं वही बाहर से भी लाकर खिला देता था।

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हमने पूछा,”आप इन्हें घर क्यूँ नहीं ले गए?” बोले,”घर में हमारा कमरा तीसरी मंज़िल पर है इनको लैट्रिन होती ही रहती है। वहॉं छुआ- छूत भी है।चाचा-चाची भी हैं बहुत ख़याल रखते हैं पर अप्रैल में उनकी बिटिया की शादी है। इनके वहाँ रहने से रोज़ अस्पताल, डॉक्टर चल रहा था। शादी की तैयारी हो ही ना पायी। माँ का कुछ भरोसा नहीं है। हम प्राइवेट अस्पताल का ख़र्चा नहीं निकाल सकते। सरकारी अस्पतालों का सहारा लिया था। सबने अब जवाब दे दिया है। जहाँ दवा काम नहीं करती वहॉं दुआ काम करती है। हमारे गुरुजी ने घर की परिस्थिति देखकर यहाँ लाने का आदेश दिया। हम है ना! सेवा के लिए, कर रहे हैं। इन्हें खिलाते हैं। लैट्रिन के कपड़े धो देते हैं। वो देखिए, सूख रहे हैं। गाँव में भी इज़्ज़त बची है। इन्हीं माँ के चलते हम इतने बड़े हुए। बचपन में स्कूल ले जातीं थीं। तब बारिश के दिनों में घर में एक ही छाता था। वो भी फटा हुआ। जब छाता खोलतीं तो फटा हुआ अपनी तरफ़ रखतीं थीं और ठीक वाला मेरी तरफ़। ख़ुद पूरी भीग जाती थीं मैं बिलकुल सूखा आता। उस समय मुझे कुछ नहीं लगता था। मैं खेलने भाग जाता था पर आज बहुत याद आता है।

हममें आत्म विश्वास बहुत है। NCC के हम c लेवल के कडेट थे। कम लम्बाई की वजह से अफ़सर नहीं बन पाए। आज भी गाँव में लड़कों को ट्रेनिंग देते हैं। सब हमारे पास ही आते हैं।”

सच में सुनील की चुस्ती और कॉलर वाली शर्ट देखकर उसके मन में बसे अफ़सर की दास्ताँ साफ़ दिख रही थी। हमने पूछा,”माताजी ने आपको क्या सिखाया?”

सुनील बोले,”इन्होंने सबसे बड़ी बात सिखायी आत्म विश्वास हिलने मत देना। किसी परिस्थिति में हार मत मानना। जो काम प्रेम से हो जाए उसमें दिमाग़ मत लड़ाना।

माँ भगवान है हमारी। उसी ने तो रचना की है। हमेशा कुँवारी कन्या को खाना खिलाती थी। पता नहीं कैसे ये रोग हो गया। उसे जीने की बहुत इच्छा है पर जो भगवान की मर्ज़ी होगी। हम मोक्ष नगरी में बैठे हैं। इसी आशा में कि इनके प्राण यहीं छूटें। मैंने हाई स्कूल में गणित में ९६% नम्बर पाए थे। दूसरे बच्चों को भी पढ़ाता हूँ। अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाना चाहता हूँ। काम की खोज में हिमाचल तक पहुँच गया। हमारे देश में इंसान के भीतरी गुणों की पहचान नहीं है।

हमने पूछा इतनी बड़ी बिल्डिंग में आपको अकेले बीमार माँ के साथ डर नहीं लगता? इस इमारत का तो रूप रंग ही डरावना है। बोले,”डर काहे का? रात को महसूस होता है इसलिए हमने बीच में रास्ता छोड़ा हुआ है।हमें शिव स्तोत्र, हनुमान कवच सब याद हैं इंसान सबसे ज़्यादा मृत्यु से डरता है वो काशी नगरी में सब जगह है। वो देखिए, आँगन में कोने में खाना ढका रखा है। रोज़ जो खाते हैं रख देते हैं। कोई परेशानी नहीं है। हम अपनी माँ की सेवा में हैं। भगवान भी देख रहा है। ये देखिए, चाचाजी का फ़ोन आ गया।

जब तक वो फ़ोन पर बात करता रहा तबतक हम इमारत का मुआयना करते रहे। अब उनकी माताजी ने खाना छोड़ दिया। हमारी तरफ़ मुख़ातिब हुईं।हमने नमस्कार कर उनका नाम पूछा,”इन्दु देवी।””आपकी तबियत कैसी है?”” ठीक हूँ, खाना खाया नहीं जाता।”यहाँ आकर कैसा लग रहा है? “, यहाँ गंगाजल पीती हूँ, ठीक हो जाऊँगो और अप्रैल में कन्या दान कर लूँगी। मेरा एक ही बेटा है। कन्यादान का बहुत शौक़ है। ना जाने कैसे पिछले नवम्बर में ये रोग हो गया। मैं तो देवी की बहुत पूजा करती थी। सुबह जबतक कन्या को ना खिलाती थी तबतक अन्न ग्रहण ना करती थी। किसी दुश्मन को भी ना हो ऐसा रोग। ये बच्चा हमें सब खिला रहा है। पचता ही नहीं। हमारा १२ साल में ही ब्याह हो गया था। अगर बच गई तो हर साल शीतला माता का पूजन करवाऊँगी। ये देखिए, मेरे शरीर में कम्पन होता रहता है।”

श्रीमती इन्दु देवी की जीवन जीने की इच्छा इतनी उत्कट थी कि हम सभी की आँखों में आँसू छलक आए। हमने दिल से प्रार्थना की कि हे ईश्वर, इन्हें इतनी आयु तो दो ताकि अपने मन की इच्छा ‘कन्यादान’ पूरी कर सकें।

उनके बेटे की मेहनत और माँ के प्रति प्रेम, आदर, त्याग देखकर मन गद-गद हो उठा। भारतीय समाज में आज भी श्रवण कुमार अपना कर्तव्य निभा रहे हैं। हमारे इस प्रकरण से द्रवीभूत होकर मसूरी आईएएस अकादमी के श्री द्वारिका प्रसाद उनियाल ने ये भावपूर्ण पंक्तियाँ लिख भेजीं:

ज़िंदगी जीना चाहती है
और मैं मरना।
घर बार छोड़,अकेली
अपने प्रारब्ध के इंतज़ार में।
यह अनोखा विरोधाभास है
हर जीती आत्मा
मृत्यु का वर माँगती!
जैसे फिर से एक बार
दुल्हन बन, वर माला लिए
ज़िंदगी की चौखट पे !
कब आएगा काल पुरुष
और
लिवा ले जाएगा दूसरे लोक!
इतनी उत्सुकता?
हॉं!
सुना है बनारस में मोक्ष मिलता है!!

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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