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2015 के सितंबर के पहले हफ्ते में ऐसा लगने लगा था कि मानों मुझे कहीं भी छुट्टी पर जाना है, बस यहां इस भीड़-भाड़ में नहीं रहना। इस बात का अंदाज़ा कतई नहीं था कि आगे एक ट्रैक मेरा इंतज़ार कर रहा था। लैपटॉप पर जब ‘कहां जा सकते हैं’? इस सवाल का जवाब ढूंढना शुरू किया तो ट्रैक पर जाने का ख़्याल दूर-दूर तक ज़हन में कहीं नहीं था। लेकिन हां, कश्मीर जाने का ख्याल रडार पर ज़रूर था। गूगल पर कश्मीर टाइप किया तो आदतन उसने ज़रूरत से ज्यादा जानकारी निकाल कर परोस दी और उसी में कोने वाली कटोरी में कश्मीर में ट्रैक पर जाने का विकल्प भी था।

सब कुछ ट्राई करके देखने के जज़्बे के तहत हमारी सुई ट्रैकिंग पर अटक गई, इस बात से बिलकुल अनजान कि इन नौ दिनों के सफ़र में जिन्दगी के सबसे अहम फ़लसफ़ों से मुलाकात होने जा रही है। ख़ूबसूरत वादियों, ख़ामोश सर्द हवाओं, शारीरिक चुनौतियों और कुछ बिल्कुल अनजान लोगों के साथ सफ़र पूरा कर जब लौटा तो कुछ अपना वहॉं छोड़ आया था और कुछ उनका यहॉं ले आया था। यादों का बस्ता खोला तो उन ऊंचे ख़ामोश, स्थिर पहाड़ों और दूर तक फैले मैदानों ने नौ दिनों की गुफ्तगू में, जिन्दगी के मायने समझने का जो कुछ भी सामान इकट्ठा हुआ, उसे पोटली में बांधकर साथ ले लिया। आज वो पोटली यहां खोलने जा रहा हूँ।

रफ़्तार-
पहाड़, ज़िन्दगी का जो सबसे पहला और अहम फ़लसफ़ा समझाते हैं वो है रफ़्तार। पहाड़ों पर चलने का कायदा ये है कि न तो तेज़ भागें और न बहुत धीमे चलें। तेज़ भागेंगें तो हांफ़ जाएंगे और आस-पास का बहुत कुछ छूट जाएगा। बहुत धीमे चलेंगे तो आप छूट जाएंगे। इसलिए ज़रूरी है कि पहाड़ पर जब भी चलें एक रिदम यानि लय बनाकर चलें। यही हिसाब ज़िन्दगी पर भी लागू होता है। ज़िन्दगी जीने की कोई तयशुदा रफ्तार तो नहीं है लेकिन एक लय बनाकर चलेंगे तो दूर तक सफ़र का मज़ा ले पाएँगे। सब कुछ जल्दी पा लेने की होड़ में भागेंगे तो हांफ़ने लगेंगे औऱ बहुत कुछ छूट जाएगा। अगर एक भाव से नहीं चलेंगे तो शायद ख़ुद पीछे छूट जाएंगे। इसलिए अपनी रफ़्तार ख़ुद तय करके लय में चलते रहिए और बीच-बीच में रुककर आसपास की ख़ूबसूरती का मज़ा भी ज़रूर लीजिए ताकि ज़िन्दगी के फेफड़ों को भी सांस लेने का वक्त मिलता रहे।

कोई भी बेकार नहीं-
ज़िन्दगी में कभी-कभी हम अपनी कीमत या अहमियत नहीं आंक पाते। हमें लगता है फ़लाना फ़िल्म स्टार, फ़लाना क्रिकेटर और फ़लाना बड़ा बाबू ही जीवन में कुछ हासिल कर पाया, हम तो बेकार ही रह गए। लेकिन ऐसा है नहीं। पहाड़ पर जब आप चलते हैं तो वो पैरों के नीचे कुचली गई ज़मीन औऱ घास ही है जो आगे का रास्ता बताती है वरना पहाड़ों पर भटक जाना बहुत आसान है। उसी रास्ते को देखकर और सीखकर कि यहां से आगे बढ़ा जा सकता है, मुसाफ़िर आगे बढ़ते जाते हैं। वैसे ही हमारी ज़िन्दगी चाहे कितनी ही मुश्किलों से क्यों न भरी हो औऱ हमारे सपने कितनी ही दफ़ा क्यों न रौंदे गए हों लेकिन वो किसी न किसी को रास्ता दिखाने के काम ज़रूर आ सकते हैं। आपका अनुभव भी किसी को रास्ता दिखा सकता है। ज़िन्दगी में किसी के काम आ जाने से ज़्यादा ख़ूबसूरत बात कुछ नहीं।

पीठ पर कम वज़न-
ट्रैकिंग में जितना ज्यादा वज़न पीठ पर लदे बैग का होगा उतना ही मुश्किल आपका सफ़र होगा और उतनी ही तकलीफ़देह आपकी चढ़ाई होगी। इसलिए सिर्फ़ और सिर्फ़ जरूरी सामान पीठ पर रखकर चलना आपको आसानी से दूर तक ले जाता है और सफ़र का मज़ा लेने का मौका भी देता है। इसी तरह ज़िन्दगी में भी यादों, मतभेदों और झगड़ों वगैरह-वगैरह को जितना अपने बैग में लेकर आप चलेंगे,ज़िन्दगी उतनी ही मुश्किल लगेगी। जो बीत गया उसे बैग से निकाल फेंकिए। सिर्फ़ ज़रूरत का सामान लादे ज़िन्दगी में चलेंगे तो दूर तक भी जाएंगे और मज़ा भी कर पाएंगे।

साथ बनाता है सफ़र बेहतरीन-
इस ट्रैक ने एक और बेहतरीन बात समझाई। सोच रहा था कि पहाड़ के मुश्किल से मुश्किल रास्तों पर रोज़ 10-11 किलोमीटर चलना और दिन-दिन भर चलना भी अखर नहीं रहा था लेकिन कोई यही बात दिल्ली में कह दे कि रोज़ दस किलोमीटर चलकर आओ तो संभव नहीं लगेगा। ऐसा क्यों था? सोचा तो पता चला कि इस ट्रेक में तमाम तकलीफ़ों के बावजूद सफ़र मुश्किल नहीं लग रहा था क्योंकि आसपास की ख़ूबसूरती उस सफ़र को बेहतरीन बना रही थी। आगे क्या देखने को मिलेगा? इसकी जिज्ञासा भी अहम किरदार निभा रही थी। अगर यूं हीं ज़िन्दगी में हम अपने आसपास का माहौल बेहतर रखते हैं तो कई तकलीफ़ें हम पर वो असर नहीं छोड़ पातीं जो शायद यूं छोड़ देतीं। आसपास से मेरा मतलब है कि हमारा परिवार, हमारे दोस्त, हमारा दफ्तर… यही तो हैं जिनके साथ हमारा रोज़ का सफर तय हो रहा है। अगर यहां मौजूद रिश्तों में ख़ूबसूरती है तो सफ़र कभी बोझिल नहीं लग सकता। अगर आगे क्या होगा यह कौतूहल मन में है तो जिन्दगी का सफ़र भी बोरिंग नहीं हो सकता।

अकेले हैं ज़िंदगी के सफ़र में-
हम सब ज़िन्दगी का अपना-अपना सफ़र अकेले ही पूरा कर रहे हैं। कुछ लोग थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मिलेंगे, कुछ साथ चलेंगे-कुछ बिछड़ेंगे। कौन कितनी देर सफ़र में साथ होगा ये कहना मुश्किल है लेकिन सफ़र पूरा तो हमें अकेले ही करना होगा, अपने बलबूते ही करना होगा। इस बात का अहसास ट्रैकिंग के दौरान तब हुआ जब हम सब अपनी-अपनी लय से चले जा रहे थे। किसी का घुटना जवाब दे रहा था तो किसी को थकान हो रही थी। कोई छूट रहा था तो कोई आगे मिल रहा था। कोई थोड़ी देर के लिए रुककर साथ बैठ जाता लेकिन फिर चल पड़ता। कोई थोड़ी देर के लिए कंधा दे देता। लेकिन दिन के आख़ीर में हम सब को ख़ुद ही कैंप तक पहुंचना होता था। कमोबेश ज़िन्दगी की ही तरह, जहां आपका सफ़र सिर्फ़ आपका है, लोग साथ दे सकते हैं लेकिन सफ़र पूरा आपको ही करना है।

दूर से जज न करें मुश्किल को-
ट्रैक पर हर सुबह हम ट्रैक लीडर से पूछते थे कि आगे का रास्ता कितना मुश्किल है। जब वो बताता था कि देखो, दूर उस पहाड़ के पार जाना है तो लगता था कि ये तो नामुमकिन है लेकिन हर रोज़ न जाने कितने ही ऐसे पहाड़ हमने पार किए और न सिर्फ़ पार किए बल्कि बख़ूबी पार किए। ज़िन्दगी में भी मुश्किलों और चुनौतियों को दूर से ही मत आंकिए।

बस चल पड़िए।
मंज़िल मिल ही जाएगी।

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प्रखर वक़्ता सुशांत सिन्हा हिन्दी न्यूज़ चैनल के एंकर और जाने-पहचाने ब्लॉगर हैं। बिहार की पृष्ठभूमि से उभरे सुशांत राजनीतिक और सामाजिक पहलू की नब्ज़ बखूबी पकड़ते रहे हैं।

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