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पर्वतीय क्षेत्रों की सैर कर के आए लोगों से अगर आप पूछें कि क्या देखा ? सभी प्राकृतिक सौंदर्य के वर्णन के साथ अनायास कह उठते हैं पहाड़ों पर पहाड़ों को जीतती पहाड़ी स्त्रियों को काम करते देखा। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पहाड़ों का चप्पा – चप्पा अगर किसी से परिचित है तो वह हैं यहाँ की दमदार,खुद्दार स्त्रियाँ । घर,खेत,खलिहान सम्हालती ये महिलाएं सुबह सूर्य की पहली किरण के साथ रस्सी दरांति लेकर घास काटने निकल पड़ती हैं । प्रतिदिन एक नयी जंग है । पशुओं की देखभाल, बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी, घर का चौका बर्तन, खेतों में गुड़ायी , निलायी , नए बीज की बुवाई,दिन का खाना फिर घास कटाई , स्कूल से वापस आए बच्चों की संभाल , गोठ की सफ़ाई करती हैं । दिन ढलते – ढलते ख़ुद भी कटे पेड़ की तरह ढह पड़ती हैं ।
और यही नहीं इन्हीं में से सामाजिक कार्यकर्ता भी बनती हैं, शराब बंदी के लिए नारे लगाती, पेड़ों की सुरक्षा के लिए पेड़ों से चिपकती हैं । गाँव में बनने वाली सड़क के लिए आप इन्हें पत्थर तोड़ते भी देखेंगे। सबसे बड़ी उपलब्धि उत्तराखण्ड का निर्माण इन्ही के अथक प्रयास से सम्भव हुआ । मेहनती जीवन की अगर आप परिभाषा देखना चाहते हों तो क़रीब से एक पहाड़ी बुवारी का जीवन देखिए , सब रंग मिल जाएँगे । उम्र ढलते – ढलते चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं ।
जंगल में घास के गट्ठर पर ढलकी हुई आराम की सुखनिंद्रा में डूबी पहाड़ी स्त्री दया , ममता , जयंती ,मंगला, काली सब रूपों में दिखायी देती है । इठलाती,इतराती, श्रंगार से बनी – ठनी युवतियाँ भी मिल जाएँगी और दूसरी तरफ़ रूखे बालों को पीछे बाँधकर सिर पर गमछा बांधे हाथ में दरांति लिए घास का गट्ठर या बाँझ की डालियाँ बाँध कर लाती स्त्रियाँ भी दिख जाएँगी । दरांति इनका ब्रहमास्त्र है। घास काटनी हो या पेड़ों की डालियाँ , साँप से मुक़ाबला हो या रीछ और बाघ, सबको भगाने के लिए दरांति ही बहुत है । दूर जंगलों में अकेली चट्टानों के ऊपर चिपकी आकृति किसी स्त्री की है यह सोचने पर ही आश्चर्य हुआ कि अभी तो ये सामने से जा रही थी । अभी कहाँ इन दुर्गम चट्टानों पर घास काटने जा चढ़ी। उत्तराखंड के जंगलों में सेव टाइगर मुहिम के कारण बहुत से टाइगर गाँव के आस – पास घूमते दिखायी दे जाते हैं। इनसे कैसे बचना है और घास का गट्ठर भी सम्हाल कर लाना इनको बख़ूबी आता है। निडर शब्द की मिसाल हैं ये स्त्रियॉं!
इसी तरह की एक ओजस्वी महिला से हमारी मुलाक़ात सौड़ गॉंव में हुई । दीपक की मौसी श्रीमती सबली देवी रमोला। गठीला शरीर, गोरा धूप में पका रंग , हँसमुख व्यक्तित्व की धनी मौसी । कुछ ही समय में वो मुझसे लेकर वालंटीर्यज़ तक की जगत मौसी बन गयीं ।
फुलु की लँगड़ी
छोटों भूलो बोला माँजी की दगुड़ि
गिंजड़ि की गाँजि
के ऑल करनी मेरी माँजी जिए माँजी
डाली मन फूलों की मैं ख़ुद लगनी माँजी
अपनों भूलों की सोहोनी की सियारी
माँजी कि पास होली
मेरी भतीजी पीयरी
कुछ इस तरह के गाने के बोल बरबस आकर्षित कर रहे थे । दिन के चार बज रहे होंगे बाहर खेत में मौसी बैठी आलू निकाल रही थीं ।
मैंने उनसे बचपन की यादों की गठरी खोलने को कहा । अपने जीवन का सार बताओ मौसी ! एक मीठी सी मुस्कान उनके चेहरे पर खिल गयी । हम चाय का प्याला लेकर छत से नीचे उतरती सीढ़ियों पर बैठ गए । मौसी बताने लगीं –
जंगल में घास काटते – काटते मायके की याद आती थी । बारिश के मौसम में खुदेड़ लग जाती थी , तब मैं किसी पत्थर पर बैठ कर इस तरह के गीतों में घर के हर सदस्य को बुनती जाती थी । आप जिसे फ़्लैश बैक कहते हैं फ़िल्मों में , हमारा फ़्लैश बैक यही था । मेरे साथ और भी नई ब्याहता लड़कियाँ आ जाती थीं । खुला जंगल ऊँचे चीढ़ – बाँझ के पेड़ हमारे आँसुओं के गवाह थे । गॉंव के जीवन में प्रकृति की गोद की नर्माहट और कड़वी सच्चाइयॉं बहुत झेलीं । इन जंगलों के पेड़ हमारे दोस्त और घास हमारा बिछौना थी । पढ़ाई, खेलकूद और आराम सपने की बातें थीं ।
मैंने शुरू का जीवन बहुत कठिनाई से बिताया । ससुरजी की मृत्यु के बाद मेरी शादी हुई और उस समय मेरा छोटा देवर होने वाला था । तीन बहनें और तीन भाई , माँजी और सबकी ज़िम्मेदारी हम दोनों पर ही थी । सासजी ऐसी हालत में कुछ काम नहीं कर सकती थीं । गाय , भैंस की साफ़ सफ़ाई सब मेरी ज़िम्मेदारी बन गए । सुबह चार बजे उठकर पशुओं को चारा डालना , वहाँ की सफ़ाई करना । घर के सब सदस्यों के लिए रोटी – चाय बनाना । सब मुझे ही करना होता था । माँजी का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर रहता था । मेरी उम्र उन्नीस साल भी पूरी नहीं थी । मुझे जंगल में घास काटने जाना अच्छा लगता था । घर में बच्चे छोटे थे उन्ही को सम्भालना ,नहलाना,खाना खिलाना । दिन में एक बजे आकर भैंसों का गोबर साफ़ करना और जब खुद के खाना खाने का समय आता तब सासु सामने आकर बैठ जातीं थीं । रोटी भरपेट नहीं देती थीं । हम बहुओं के नसीब में ही नहीं थी । हमारी भूख प्यास की कौन पूछे शाम की चाय में भी कभी दूध नहीं तो कभी चीनी नहीं । हम शाम को भी घास लेने जातीं थीं । सात- आठ बज जाते थे । तब आपके मौसाजी वापस आते थे । उन्हें सब पता था । दस मुख खाने वाले एक मुख कमाने वाला । क्या कहते ? चुपचाप ड्यूटी जाते वक़्त सुबह की अपनी तीन रोटियों में से एक रोटी मेरे जंगल ले जाने के लिए रजाई के नीचे काग़ज़ में लपेट करके छिपा जाते थे । मैं डरती, रस्सी के साथ छिपा कर जंगल ले जाती और पानी के गदेरे के पास बैठकर खा लेती थी ।
घर में दूध , दही , घी सब कुछ होता था । सब बच्चे खाते थे पर बहु के लिए कुछ भी नियत नहीं था । मेरे पिताजी को पता चला तो मेरे लिए कभी – कभी मनी ऑर्डर भेजने लगे । पोस्ट्मैन से पहले तो सास ने माँग लिए । अगली बार पिताजी ने धमकी दी तब पोस्ट्मैन ने मुझे ही हाथ में देना शुरू कर दिया । वह भी मैं बचा नहीं पाती थी । घर के सुरसा जैसे मुख में सब समाप्त हो जाता था । एक बार आपके मौसाजी की तबियत बहुत बिगड़ गई । बच्चे बहुत छोटे थे घर में पैसे कहॉं बच पाते थे , देवर ननदें छोटी ही थीं । मैं पॉंच दिन कमरा लेकर झड़ी पानी के डॉक्टर को
दिखाती रही । इनकी हालत बिगड़ती चली गई डॉक्टर ने पी जी आई चण्डीगढ़ जाने की सलाह दी । मैंने मायके में खबर भिजवाई और टैक्सी से ऋषिकेश को रवाना हो गई । रास्ते में मेरे मामा लोग पैसे लेकर मेरे साथ जाने को तैयार खड़े थे । मॉं बच्चों को अपने साथ ले गईं । जब ऋषिकेश से हम बस में चढ़े तो इनके लिए तीन सीटें बुक करके लिटा दिया । मैं माता भगवती का ध्यान करके रो रही थी आधे रास्ते इनकी सॉंस रूकती सी लगी और किसी ने कह दिया कि ये नहीं रहे । मेरे पर क्या बीती मैं क्या कहूँ । ड्राइवर साहब ने बस रोकदी । तभी एक सज्जन आए और इनकी हाथ की नाड़ी पकड़ कर बोले चिन्ता मत करो इसे एक घण्टे बाद होश आ जाएगा । मुझे थोड़ा सहारा मिला । चण्डीगढ़ पहुँचते ही इन्होने पानी मॉंगा । वो सज्जन रास्ते में कहीं उतर गए मुझे पता ही नहीं चला। तीन महीने तक वहॉं रहकर इनका इलाज करवाया ।
मौसी का ध्यान अब मायके की तरफ़ चला गया । बोलीं , मेरे पिताजी सूबेदार पूरण सिंह CRPF में थे । हम चार बहनें – चार भाई थे । पिताजी अपनी पोस्टिंग के स्थान पर ही रहे । घर पर दादी का बोल – बाला था।हमारी दादी ने हम दो बड़ी बहनों को स्कूल नहीं जाने दिया । घर के काम निबटवाने के लिए हमारे पीछे लाठी लेकर पड़ी रहती थीं । छोटे भाई – बहन सब पढ़ लिख गए पर हम दोनों बहने अक्षर ज्ञान भी ना ले पायीं । अठारह -उन्नीस साल में हमारी शादी कर दी । मेरी शादी बिलकुल ही दूर गाँव सन गाँव में हुई । आपके मौसाजी तब किसी दूसरे की गाड़ी चलाते थे । ये अपनी बुआ के पास देहरादून रहकर दसवीं तक पढ़ चुके थे । कुछ साल कंडक्टर भी रहे । फिर सोचा इसमें आगे उन्नति के चान्स नहीं हैं । ट्रक चलाया । सब्ज़ी का ट्रक लेकर झड़ी पानी से मसूरी, देहरादून, दिल्ली तक जाने लगे । फिर पाँच साल बाद अपनी गाड़ी ख़रीदी । अब बच्चों को पढ़ाने की समस्या आ गयी । हम चम्बा चले गए । वहाँ मैंने दूसरों के खेत किराए पर लिए और खेती की । उससे मेरी कमाई शुरु हो गयी । हम दोनों ही मेहनत मजदूरी करते थे । जिन्दगी की गाड़ी चलने लगी। बच्चे जब बारहवीं तक पढ़कर बाहर चले गए तब हमें चम्बा में रहना व्यर्थ लगने लगा । हमारा घर, खेत तो सौड़ और सनगाँव में थे । हमने निर्णय लिया कि अपने गाँव चलते हैं । वहीं मकान बना लेंगे । वहीं रहेंगे । तब रोड यहां तक नहीं थी। सौड़ वापस आकर भी हम चार साल बेड़ (नीचे का) घर में रहे । पुराना घर हमारे दादाओं की सम्पत्ति है जिसके बहुत से वारिस हैं । पर सबने हमारा गाँव में बहुत स्वागत किया । घर पुराना पत्थरों का बना था । बहुत मेहनत से साफ़ किया । लिपाई -पुताई ख़ुद करती थी । चार साल रही तब बेटा बाहर से आया । हमने पक्का अपना घर बनाने की ठानी । गदेरे से सुबह – सुबह रेत बाज़री छानी। उसे बोरियों में खच्चर पर लाद कर यहाँ तक लाए । मौसाजी की हिम्मत बढ़ गयी जब बेटा साथ लग गया । ७१ हज़ार टोटल कैश था हमारे पास । हमने माता सुरकंडा और नाग देवता की कृपा से पक्का घर बना लिया । मेरे घर के लिए निजी रास्ता नहीं था मैं पटवारी के पीछे लगी रही तब ग्राम प्रधानजी और उनके नक़्शे पर रास्ता निकलवाया और उसे ख़ुद सीमेंट रेत बाज़री का मसाला बनाकर यहाँ तक पक्का रास्ता निकलवाया ।
मेरे लिए बेटे ने सीढ़ियों के नीचे एक दुकान १२०० रुपए में शुरू करवा दी । जनरल मरचेंट का सामान है । आस -पास से लोग अपनी ज़रूरत बता देते हैं । मौसाजी रोज़ सवारी लेकर चम्बा जाते हैं और आते समय सभी सामान ले आते हैं ।
मैं ख़ाली नहीं बैठ सकती । मनुष्य जनम लिया है तो हाथ – पॉंव तो चलेंगे ही । खेती भी करती हूँ । कुछ साग सब्ज़ी बेच लेती हूँ । मेरे बेटे ने पुराने मकान में मशरूम की खेती करनी चाही थी । बहुत पैसा भी लगाया । पर बीज देने वाले ने धोखा दिया । सफलता नहीं मिली वो पुणे वापस चला गया । मेरी खेती व दुकान अच्छी चलती है । सबसे अपनापा है । पहचान है । जीवन में यही सोचा कैसे नाम कमाना है , गँवाना नहीं है । यही पाया कि मेहनत सफलता की पहली और आख़िरी सीढ़ी है । कर्मशील रहना बीच की ज़िंदगी है अपनी सोच अच्छी हो तो दूसरों की उन्नति भी अपनी उन्नति बन जाती है । ईर्ष्या सब झगड़ों की जड़ है । मुझे हार्दिक ख़ुशी मिलती है जब किसीके बच्चे का रिज़ल्ट बहुत अच्छा आता है । किसी लड़की को नौकरी मिलती है । जीवन में समस्याएँ तो उलझती ही रहती हैं । मैं उनसे बाहर ख़ुशियाँ ढूँढ लेती हूँ ।
घर है,गाड़ी है, दुकान है , पशु है क्या कमी है ? जब सोच पर विजय पा ली तब कुछ भी कमी नहीं है ।
और मैडमजी अब तो बहू भी है !
सही है आप ही में दुर्गा भवानी ! सती सावित्री ! तीलू रौतेली है ।
आप सही मायने में समर्थ ,सक्षम , हिम्मती पहाड़ी मॉं हैं जो पहाड़ों को भी रौंद सकती हैं ।

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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