Top Menu

जीवन में औरों से हटकर कुछ नया करने की इच्छा क़िसमें नहीं होती? सभी अपने-अपने दायरे से बाहर निकलकर दुनिया को जीतने का हौसला रखते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि आप किसी से मिलकर इतने प्रभावित हो जाते हैं कि दुबारा मिलकर उनके बारे में और जानने की इच्छा प्रबल हो जाती है। उड़ीसा में जन्मे श्री ध्रुब पांडा एक ऐसे ही व्यक्तित्व हैं जो व्यवसाय से तो बैंक में अधिकारी रहे पर जीवन के सभी अवकाश के पल इन्होंने हिमालय के नाम कर दिए। अपनी यात्राओं पर बहुत सी पुस्तकें भी लिखीं और शारीरिक यात्रा के साथ-साथ आध्यात्मिक यात्राएँ भी की।

श्री ध्रुव पांडा का जन्म उड़ीसा के एक छोटे से गाँव सतीजोर में हुआ। यह गॉंव महानदी के किनारे बसा हुआ था।

इनकी स्कूली शिक्षा हीराकुड हाई स्कूल बरला में हुई। यह पूरे उड़ीसा में एक ही अंग्रेज़ी माध्यम का स्कूल था। हमने पूछा, “आपकी हिमालय पर ट्रैकिंग की इच्छा कैसे जागृत हुई?”

“सन १९६१-६२ में एक पर्वतारोही हमारे स्कूल में आए जिन्होंने पर्वतारोहण पर बहुत दिलचस्प भाषण दिया वो साथ में बहुत से यंत्र, विशेष कपड़े और projector वाली मूवी भी लाए थे। अपने लेक्चर के साथ-साथ उन्होंने रंगीन स्लाइड्ज़ भी दिखायीं जिनमें एवरेस्ट पर चढ़ते तेनज़िंग और हिलेरी को भी दिखाया। उन्होंने पर्वतारोहियों के ख़ास कपड़ों को दिखाया। यह एक अनोखा और हमारे बालमन पर विशेष प्रभाव डालने वाला लेक्चर था। उनके जाने के कुछ दिनों बाद हमारे विद्यालय के विद्यार्थी आस-पास की पहाड़ियों पर चढ़ते पाए गए।

महानदी के किनारे बने एक आश्रम में मैं अपने पिताजी के साथ तीन दिन के कार्यक्रम में भाग लेने जाया करता था। वहाँ डॉक्टर जनार्दन पुजारी बहुत ही विद्वान व्याख्याता थे। उन्हें गीता और उपनिषदों का बहुत ज्ञान था। वो भी हिमालय पर रहनेवाले साधुओं व ऋषियों की फ़ोटोज़ दिखाया करते थे। वे पहले ही गंगोत्री, गोमुख और तिब्बत में कैलाश मानसरोवर की यात्रा कर चुके थे। उनके पास यात्राओं के अनुभवों की पिटारी थी जब समय मिलता बहुत सी कहानियाँ सुनाया करते थे। अाध्यात्म की ओर अन्तर्मुखी होने की प्रेरणा उन्होंने ही दी।

सन १९७४ में मैं डॉक्टर अशोक कर से मिला, जो इस्पात जनरल अस्पताल राउरकेला में कार्यरत थे। मैंने तभी-तभी बैंक की सर्विसेज़ प्रारम्भ की थी। डॉक्टर कर एक ख्यातिप्राप्त पर्वतारोही थे। अपने साथ पूरी टीम को नंदादेवी, पंचचूली की यात्रा करवा कर सफलतापूर्वक लौटे थे। उन्होंने अपने ट्रेकिंग और पर्वतारोहण के बहुत से रोमांचकारी अनुभव सुनाए। हमने मिलकर १९७७ में रूपकुंड ट्रेक का कार्यक्रम बनाया पर दुर्भाग्यवश १९७६ में एक रॉक क्लाइम्बिंग अभियान में उनकी मृत्यु हो गयी।

डॉक्टर पुजारी और डॉक्टर कर मेरे लिए प्रेरणा स्रोत बनकर आए। कहीं दिल में गहराई तक जाकर इच्छा जागृत हो गयी कि ट्रेकिंग करूँगा। इसके बाद तक़रीबन ५०-६० बार ट्रेकिंग में भाग लिया कई बार टीम लीडर भी बना। हर बार नया अनुभव और हिमालय को और नज़दीक से देखने की इच्छा बढ़ती गयी। कुछ मुख्य ट्रेक जिनमें मुझे बहुत आनंद मिला-

१९७८- रूपकुंड( असफल)

१९७८- जानस्कर ट्रेक

१९७९- लाहौल-स्पीति ट्रेक

१९७९- पार्वती वैली

१९७९- धौलाधार वैली

१९८०- जम्मू कश्मीर- किश्तवाड़ ट्रेक

१९८२- दर्चा- लेह

१९८३- मुक्तिनाथ नेपाल

१९८४- गोमुख तपोवन

१९८४ & १९८८- पंच केदार

१९८४ & २००८- डोडीताल

१९८६- पिंडारी और कफ़नी ग्लेशियर

१९८८- अरुणाचल प्रदेश

१९९०- कंचनजंघा

१९९६- कैलाश मानसरोवर

१९९८- हर की दून

२००३- धनौल्टी- नाग टिब्बा

२००५- चंबा- धनौल्टी ट्रेक

२००७- केदार ताल

२००८- डोडीताल

२००९- गौमुख

२०१२- सतोपंथ

२०१५- तुंगनाथ

मैंने हिमालय को हर कोने से छूने की कोशिश की है जैसे एक छोटा बच्चा पिता के हाथ का सहारा लेकर पैरों से धीरे-धीरे उठता हुआ कंधे पर जा बैठता है बिलकुल उसी प्रकार देवस्वरूप हिमालय पर अनजान शक्ति लिए मैं धीरे-धीरे हर कोण से ट्रेक कर चुका हूँ। बहुत कुछ देखा और बहुत कुछ छूटा।

इन यात्राओं से मैंने बहुत सारे lesson सीखे-

1. हमारे शरीर में इतनी अधिक क्षमता है जिसे हम पहचानते ही नहीं हैं
जब हम अपने शरीर को ख़ास परिस्थितियों में ले जाते हैं तभी इसकी पूर्ण क्षमता का ज्ञान होता है।
अतः जीवन में अत्यधिक तापमान वाली जगहों पर, ऊँचाइयों पर, समुद्र की गहराइयों में जाकर एक बार अनुभव ज़रूर लेना चाहिए।

2. भय को जीतना आवश्यक है मृत्यु से बढ़कर और किसका भय?
मृत्यु निश्चित है। जब और जैसे होनी होगी आएगी। उसके कारण जोखिम लेने से डरना शोभा नहीं देता। भय पर विजय पाने का प्रयास करना ही चाहिए। ट्रेक करते समय ऐसे मौक़े भी आते हैं जब लगता है बस अब नहीं बचेंगे पर मनुष्य की जिजीविषा उसे बचा ही लेती है। प्राकृतिक मार जैसे बर्फ़ीले तूफ़ान, तेज़ हवाएँ, आँधी या भूस्खलन से भी लोग बचकर आए, अब इसके बाद और क्या मिलेगा?

3. प्रकृति के साथ एक समता जोड़नी आवश्यक है
जैसा देश वैसा वेश होनी आवश्यक है। जैसे वहाँ के लोग रहते हैं उसे ही अपना लो। जो वो खाते हैं वैसा ही खा लो। उनकी भाषा, उनके संगीत में रुचि दिखाओ। सब कुछ अच्छा लगने लगेगा।

4. हममें असीमित ऊर्जा है इस ऊर्जा को सकारात्मक रखें
सकारात्मक विचारों से कोई भी कठिनाई आपको परेशान नहीं कर सकती। हमारा मस्तिष्क मुसीबत में और तेज़ चलता है और कम्प्यूटर की तरह तुरंत रास्ता खोज लेता है। हर क्षण सकारात्मक सोचें, अच्छा ही होगा।

5. हम जो भी करें पूर्ण आनंद के साथ करें
आनंद की परिभाषा सबके लिए अलग-अलग हो सकती है पर किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले सोचें कि क्या ये कार्य आनंददायक होगा बस तभी आगे बढ़ें जब उत्तर हाँ में आए।

6. आध्यात्मिक चेतना को जगाएँ
प्रकृति ने आध्यात्मिक चेतना हमें by default दी है।ये जागृति है हमारे विवेक की।क्या सही क्या ग़लत।जिसने हमें बनाया वही उच्चतम पावर है।हम मूल रूप से पशु ही हैं पर इस पशुत्व पर चिंतन और मनन करके मनुष्य ने बेहतर चेतना जगा ली है।ध् यान के द्वारा यह आसानी से सम्भव है। ऐसी यात्राएँ आपको अपना मूल स्वरूप समझने में बहुत सहायक होती हैं।”

Comments

comments

About The Author

बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Powered By Indic IME
Close