ओह! यह कैसा वसंत…?

देखो, फिर आया वसंत
सरसों फूले दिग दिगन्त
धानी चादर, पीली बहार
अम्बर गूँजे, चली बयार,
देखो फिर आया वसंत…बढ़ गई धरती की शोभा अनंत….।
भारतवर्ष को षट्ऋतुओं का उपहार प्रकृति ने दिल खोलकर दिया है। वसंत ऋतु का नाम ही प्रकृति में आनेवाले सुखद बदलाव का प्रतीक है। सूखी टहनियों में निकलते नए हरे-हरे कोंपल। खेतों में लहलहाते सरसों के पौधे, आम के पेड़ों पर आती नयी बौर, पेड़ों पर पुरानी पत्तियों की जगह नयी पत्तियों का निखार सभी कुछ तो हो रहा है समय के साथ धीरे-धीरे। प्रकृति कभी अपनी तरफ़ से कहीं कोई कमी नहीं रहने देती और मानव उसे साधिकार स्वीकार करता चला जाता है। प्रकृति निस्वार्थ जब इतना देते नहीं थकती तब क्या हम पृथ्वीवासियों का फ़र्ज़ नहीं बनता कि हम भी अपने व्यवहार में विनम्रता और प्रेम बॉंटने की भावना लाएँ। वनस्पति के प्रति, पशु-पक्षियों के प्रति, कीट-पतंगों के प्रति अपनी सोच में ज़िम्मेदारी का भाव लाएँ। दूसरों के प्रति सहिष्णु बनें। इसी संसार में कुछ लोग राग-रंग में लीन हैं तो कुछ शरणार्थी बनने पर मजबूर हैं। परिस्थितियाँ इतनी विषम हैं कि सरज़मीं लावा बनकर पिघल रही है। धरती जब ख़ुद ही हताश हो जाती है तब बाशिंदों को जान हथेली पर लेकर अनजान महफ़ूज़ ठिकानों की तलाश करनी ही पड़ती है। काश! एक ज्वालामुखी फूटता और अराजक ताक़तों को लील जाता।
आज यह कैसा वसंत आया जब मन में उमंग नहीं अवसाद घर कर रहा है। एक शरणार्थी समुदाय बुरे समय से जूझ रहा है। हमारी भी ज़िम्मेदारी बनती है हम उनकी मदद को आगे बढ़ें। हमारे भारत में इतने धनाढ़्य परिवार हैं जो यदि एक सिर्फ़ एक शरणार्थी को अपने परिवार की तरह सहायता दें तो पूरा संसार ही एक परिवार में बदल जाए और तब सही मायने में पृथ्वी पर वसुधैव क़ुटुम्बकम की भावना का प्रवाह चले।