अस्सी के दशक में क़दम रखती डा. पद्मा मिश्रा
अस्सी के दशक में क़दम रखती डा. पद्मा मिश्रा उत्तराखण्ड से हैं। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित विद्यालय प्रवक्ता होने के साथ-साथ इन्होने माउन्टेनियरिंग और फ़ोटोग्राफ़ी में भी महारथ हासिल की। आपने पैदल कैलाश-मानसरोवर की यात्रा की और दिव्य अनुभूतियों से सराबोर रहीं। देश-विदेश की अनेकों यात्राओं से बहुत से अनुभव सँजोए। इनके जीवन का लाइफ़ लेसन है- प्रेम ही सर्वोपरि है:
प्यार एक दिव्य अनुभूति है जैसे ईश स्मरण में दिव्यता,परोपकार में मनुष्यता, चाँदनी में शीतलता और फूलों में सुगंध आदि सर्वत्र फैलकर आंतरिक आनंद से भर देते हैं।
प्रेम में विह्वल राम शबरी के झूठे बेर खाते हैं, दीवानी मीरा “आधी रात मोहे दर्शन दीजो प्रेम नदी के तीरा”…..गाते-गाते अपने गिरिधर गोपाल में लीन हो जाती हैं। प्यार ही में पत्नी को असमय गवां बिहार का माँझी फ़ौलादी पर्वत का सीना फोड़ सड़क निकाल देता है। इस प्रकार का प्रेम पूर्णत: निश्छल व निष्काम होता है।
१९९९ में मैं कैलाश यात्रा के मध्य डोल्मापास पार कर गौरी कुंड के किनारे-किनारे ऊपर की ओर से चली जा रही थी, बिलकुल अकेली पड़ गयी थी। पैर थक कर मनों भारी हो गए थे तभी बायीं तरफ़ से एक हाथ आया और मेरा हाथ अपने हाथ में पकड़कर चलने लगा। मैंने बस उचटती सी निगाह से उसे देखा। लाल-लाल मरून चोग़े वाला एक किशोर था। वह मुझे गहरी ढाल उतरवा कर एक नदी के बीच बड़ी सी चट्टान पर ले आया। मैंने उसे कुछ यूआन देने चाहे जो उसने नहीं लिए। मुझसे थोड़े से ड्राई फ़्रूट ले लिए। थोड़ी देर बाद हमारी लायज़ान ऑफ़िसर आ गयी। उसने हमें पीछे से देखा था बोली आपको तो कोई दिव्य शक्ति सम्हाले ला रही थी। मैंने उसे दुबारा ठीक से देखना चाहा तो वह वहॉं कहीं नहीं था। आज भी उसके बहुत मुलायम हाथों का स्पर्श मुझे द्रवीभूत कर जाता है। काश! मैं उस समय पहचान पाती तो छोड़ती ही क्यूँ? मेरा प्रकृति के प्रति अतीव प्रेम का ही परिणाम था वो।
इसके साथ ही प्रेम सतत क्रियाशील एवम् गतिमान है। इसके वशीभूत मनुष्य सारे मानवोचित क्रिया-कलापों में संलग्न रहता है। किसान और मज़दूर परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने में असह्य धूप, ठंड, बारिश-पानी की परवाह किए बिना सुबह से शाम तक पसीना बहाता है। सैनिक सीमा पर डटा प्राणों की बाज़ी लगा देता है। माँ मर्मांतक प्रसव पीड़ा झेलती है और हर स्तर का उद्यमी व कर्मचारी अथक परिश्रम करता रहता है।
विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के मुस्कुराते चेहरे मुझे प्रतिदिन ऊर्जा से भर देते और पढ़ाने के साथ-साथ मैं उनकी हर एक्सट्रा ऐक्टिविटी की ज़िम्मेवारी ले लेती। उन्ही के साथ मैंने पैंतालीस वर्ष की उम्र में उत्तरकाशी में रॉक क्लाइम्बिग और रैपलिंग सीखी। बच्चों को सिखाने का प्रेम ही तो था कि पर्वतों की ऊँचाई और नदी की तीव्र धारा भी हमें वापस मोड़ ना पाई।
संक्रामकता प्रेम की एक अन्य विशेषता है। उससे भरी एक मुस्कान कितने हताश-निराश हारे जनों में आशा का संचार कर देती है। आप जिस-तिस से प्यार करते चलिए, अपने पराए तो क्या दुनिया आपकी अपनी हो जाएगी। दूसरों की कमज़ोरियाँ भुलाकर, प्यार के साथ गले मिलिए। मोहब्बत भरे हृदय से जुड़ते ही सारा बैर, पूर्वाग्रह व अशुभ बह जाएगा और आप सकारात्मक सोच में भर जाएँगे। एक थपकी प्रेम की पाकर हिंस्रक पशु भी पालतू बन जाते हैं। थाईलैण्ड की बाघों से भरी बौद्ध मोनास्ट्री इसी का जीता-जागता उदाहरण है।
मुझे अपने छोटे से शहर की एक विधवा मॉं बहुत याद आती है, सफ़ेद धोती में सिर से पॉंव तक लिपटी वो हर महीने मेरे घर आती थी। उसकी दो बेटियाँ मेरी शिष्या थीं। हमारी वो ही पेरेन्ट-टीचर मीटिंग थी उस समय बहुत कम बोलती थी वो, मैं जानती थी कि किसी तरह सिलाई और मसाला कूट-पीस कर वो घर चलाती थी। मेरे पास उसके बच्चों की फ़ीस के लिए सिर्फ़ पाँच रुपए होते थे। बहुत प्यार से बिना हुज्जत के चुपचाप वो रख लेती थी। उसकी ऑंखों में विश्वास भरा प्यार ही तो था जो उसे सहारा देता था। एक दिन उसकी बेटियाँ स्कूल नहीं आयीं पता चला दिल के दौरे से उनकी मॉं चल बसी। उन्होंने ही बताया मेरे दिए पैसों को वो भगवान की फ़ोटो के नीचे छिपा कर रखती थी और बहुत ज़रूरत के समय ही निकालती थी। उसकी अन्तिम डाक्टरी फ़ीस भी उन्ही पैसों से दी गई। मेरा और उसके बीच का सिर्फ़ सामाजिक रिश्ता नहीं था। मानवीय प्रेम ही था जहाँ एक दूसरे की आवश्यकता की पहचान थी, care थी।
आज दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है, न जाने कितने न्यूक्लियर बॉम्ब कई देशों ने छिपा रखे हैं। एक अदूरदर्शी क़दम संसार के महा विनाश का कारण बन सकता है। इसका एकमात्र उपाय प्रेम भरे सोच व व्यवहार से ही सम्भव है। किसी भी देश के अस्तित्व पर इतना ख़तरा ही न आने दिया जाय कि लड़ाई का कारण बनें। हमने दूसरा विश्व- युद्ध और हिन्दुस्तान की प्रत्येक लड़ाई देखी है। हमेशा हार दोनो पक्षों की होती है। जीवन और जटिल हो जाता है, ग़रीब और ग़रीब हो जाता है।
प्रेम में समर्पण का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है, देना ही देना है। लुटाए जाओ प्यार, जड़ -चेतन अपने-आप आपके बनते जाएँगे। प्रेम से एक बीज भी बोएँगे तो नव अंकुर अवश्य निकलेगा।
इस प्रकार सतत प्रेम में डूबे रहने से प्रेम सृष्टि के कण-कण में दृष्टिगोचर होने लगता है। सूर्य, चाँद, सितारे, धरती, आकाश, मेघ, हवाएँ, जल, अग्नि, दिशा-दिशांतर प्रेम में पगे दिखते हैं सभी कविताओं में, गीतों में ये सशक्त प्रतीक बनते हैं और अब प्रेम परमात्मा का पर्याय बन जाता है।चन्दा, सूरज लाखों तारे…….तेरे ही हैं जग में सारे…
जीवात्मा की नाल जुड़ी है परमात्मा से। कबीर ने स्पष्ट कहा है……… ‘काहे री नलिनी तू कुम्हलानी ,तेरे ही नाल सरोवर पानी’….. दोनों का परस्पर प्रेम अटूट है फिर भी मनुष्य न जाने कितनी योनियों में इसे पुनः पाने के लिए प्रयास करता रहता है। अपने ‘आप’ को मिटा कर परम सत्ता में अंतिम विलय ही प्रेम की पराकाष्ठा है और यही प्रेम के सर्वोपरि होने की एकमात्र व्याख्या है…