विस्थापन: दायित्व और ज़िम्मेदारी
“While every refugee’s story is different and their anguish personal, they all share a common thread of uncommon courage-the courage not only to survive but to persevere and rebuild their shattered lives.” -Antonio Guterres, UN High Commissioner for Refugees
विस्थापन (displacement) ऐसी परिस्थिति है जो जाने-अनजाने बहुत से लोग अपने जीवन काल में झेलते हैं। कभी प्रकृति-जन्य कारणों से, कभी अपने ही समाज के आपसी झगड़ों के कारण। इसमें सिर्फ़ परिस्थिति ही नहीं बदलती इंसान का पूरा मानस प्रभावित हो जाता है। जीवन की सुरक्षा, बाक़ी सब सुख-सुविधाओं और सम्पत्तियों से ऊपर आ जाती है और व्यक्ति उसी तरफ़ चल देता है जिस तरफ़ उसे शांतिपूर्वक जीने की आशा दिखायी देती है। ऐसा ही बहुत बड़ा विस्थापन सन १९४७ में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ। वापस लौटने की पूरी आशा लिए लोग घरों में ताले लगाकर चले आए कि कुछ दिन बाद बलवा समाप्त हो जाएगा और हम अपने खेत-खलिहानों के बीच वापस लौट आएँगे। उन्हें जीवन नए सिरे से शुरू करना पड़ा और आज भी आलम ये है कि सीमाओं पर काँटेदार बाड़ और खड़ी हो गई है। हमने बर्लिन दीवार से कोई सीख नहीं ली।
आज भी स्वार्थी ताक़तें पुरज़ोर कोशिश में रहती हैं कि सच में दोनों तरफ़ दिल के दरवाज़े ना खुल जाएँ और सीमाएँ फिर से आबाद ना हो जाएँ। इस प्रकार की राजनीति का जवाब हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ देंगी। आज की पीढ़ी समाज के ताने-बाने से पुरानी नफ़रतों को मिटा देना चाहती है। वो उन अराजक तत्वों की चाल को समझने में सक्षम है जिनकी वजह से ऐसी दीवारें पुख़्ता होती हैं, टूटने नहीं पातीं।
सन १९९० में कश्मीर की घाटी में एक ख़ास समुदाय के ख़िलाफ़ जो आवाज़ें उठीं उन्होंने लाखों कश्मीरियों को रातों-रात घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया। छब्बीस साल बाद आज भी हालात ऐसे नहीं हैं कि कश्मीरी इस विश्वास के साथ वापस चले जाएँ कि अब हमें अपने घरों से भागना नहीं पड़ेगा। इन छब्बीस सालों में सिर्फ़ एक परिवार आज तक वापस जा पाया है।
२० जुलाई १९१२ असम के दो गुटों में इतने झगड़े हुए कि राइयट्स की स्थिति बन गयी और ४० लाख लोगों को शरणार्थी कैम्प्स में लाया गया। इन झगड़ों का असर बैंगलोर, पुणे, चेन्नई और कोलकाता में भी अगस्त २०१२ में दिखायी पड़ा जब स्पेशल ट्रेन द्वारा नॉर्थ ईस्ट के लोगों को अपने हॉस्टल, वर्क प्लेस, बिज़नेस छोड़ कर भागना पड़ा।
ये सभी घटनाएँ हमारे भारत में अपने ही लोगों के साथ घटी हैं, जिस भारत में वसुधैव क़ुटुम्बकम की नीति प्राचीन काल से सिखायी जाती है। जहाँ का लाइफ़ लेसन ही है ‘जियो और जीने दो।’
इन सभी घटनाओं के शिकार लोग अपनी-अपनी ज़िंदगी की चुनौतियों से ऊपर उठे। सभी ने जी तोड़ मेहनत की।बच्चों को पढ़ाया और पिछला सब भूल कर आगे बढ़ गए। मानव स्वभाव ही ऐसा है। असीम शक्ति से भरपूर है ये शरीर most stretchable….. कैसी भी परिस्थितियों से जूझने को हमेशा तैयार।
आज देश की सीमाओं से पार सीरिया में आइएसआइएस की क्रूरता के फलस्वरूप फिर से विस्थापन की परिस्थिति आ खड़ी हुई है। क्षोभ, चिंता, संशय, असंतोष विस्थापन जनित संवेग हैं। समाज में जब मानवीय मूल्यों की हानि होती है और अधिकारों का हनन होता है तभी पलायन शुरू होता है।
नया देश, नयी संस्कृति, नए लोग, नए विश्वास सबसे सामना करना पड़ता है और आगे बढ़ना होता है। प्रोजेक्ट फुएल इन्हीं स्थितियों की समझ के लिए उन पाँच देशों स्वीडन, जर्मनी, हंगरी, नीदरलैण्ड, फ्रांस का दौरा करना चाहता है जहाँ सीरिया के ४ लाख शरणार्थी पहुँच चुके हैं। हमारी टीम सबसे तो नहीं मिल पाएगी पर कुछ समूहों से अवश्य मिलेगी और उनकी वास्तविकताओं को जानने का प्रयास करेगी। ऐसी विकट परिस्थितियों में उन्होंने जीवन से क्या सीखा। उस देश के नागरिकों से भी मिलेगी जिन्होंने अपने देश की सीमाएँ खोलने दीं। उनके मन में मानव अधिकारों का कितना सम्मान है। आने वाले समय में ऐसा कौन सा क़दम उठाया जा सकता है कि समाज में बढ़ते संघर्ष समाप्त किए जा सकें।
हमें आनेवाले कल को सुधारना है। सात बिलियन पृथ्वीवासियों को समझना होगा कि अपने अस्तित्व के लिए दूसरों को जीने देना भी आवश्यक है। हिंसात्मक कार्यवाही से कुछ समय तक किसी जाति को डराया जा सकता है पर जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता। समाज के क्रमिक विकास के लिए उन कारणों को समझने की ज़रूरत है जिनसे हिंसा पनपती है। पूरे संसार को एकजुट होना होगा। पड़ोसी के आँगन की आग मेरे घर को भी जला सकती है।
प्रोजेक्ट फुएल उन घटनाओं की सविस्तार स्टडी करना चाहता है जिनके कारण बड़े समुदायों में संघर्ष होते हैं। एक शक्तिशाली सन्देश लाने के लिए टीम की मौक़े पर पहुँच और मेहनत बहुत आवश्यक है। आप सबका सहयोग अपेक्षित है…