बनारस के कई रंग रे……
काशी की गालियाँ घूमते-घूमते हमें तीन दिन पूरे हो गए। समय कहाँ निकल गया? कभी गंगा के घाटों पर, कभी सीढ़ियों पर, कभी हैरान कर देने वाली संकरी गलियों में। पुरानी हवेलियों, भवन जिनमें दादा-परदादा के ज़माने से बसे परिवार देखे। परिवारों के बीच बन गयी दीवारें, सबने अपनी-अपनी आवश्यकता के अनुसार संयुक्त से एकल की परिभाषा सीख ली। हवेलियों के नीचे बनी दुकानों में हमने कुछ भट्टियाँ देखीं। दस-बारह फ़ीट के कमरों में दस-दस भट्टियाँ, उन पर चढ़ी सपाट कढ़ाइयों में दूध उबलता देखा, जगह-जगह आज भी इन भट्टियों में लकड़ी या कोयला जलाया जाता है और धुआँ भरा रहता है। यहाँ मलाई की खुरचन वाली मिठाई बहुत खायी जाती है। जो कई लोगों की जीविका का साधन है।
बनारस का खाना
जिसने न जाना
रह गया बेगाना:
काशी के चाय-नाश्ते, चाट, भोजन और पान की चर्चा देश-विदेशों में प्रसिद्ध है। सारनाथ की यात्रा पर आए बौद्ध भिक्षु, संस्कृत महाविद्यालय से पढ़े आचार्य और विदेशी सैलानी यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखेंगे। उनका यहाँ आना, रहना, खाना-पीना इस शहर की उपलब्धि है। शहर की नगर पालिका कहीं अस्तित्व रखती है ऐसा जगह-जगह कूड़े के ढेर देखकर लगता नहीं, कहीं भी खाने के ऊपर कोई क्वालिटी कंट्रोल हो ऐसा भी नहीं लगता। विदेशियों को आने से पहले ही बहुत सी हिदायतें दी जाती हैं पर यहाँ पहुँचते ही ज़रूर कोई सोच या दृष्टि बदल जाती है जिससे वे आपको कहीं से भी चाय पीते या खाना खाते दिख जाते हैं।
हम भी तीसरे दिन चौक बाज़ार में श्री दीनानाथ केसरी की प्रसिद्ध दुकान दीना चाट पर पहुँच ही गए। आठ बायी दस की छोटी सी दुकान जिसमें एक साइड में सीढ़ियाँ लगाकर दो मंज़िली बना ली गयी है ऊपर भी बैठने की व्यवस्था है। मुश्किल से बैठें तो दस-बारह लोग ही बेंचों पर बैठ सकते हैं।दुकान के मुहाने पर ही हलवाई, सहायक और वेटर बस तीन लोग हमें चुस्ती से काम करते दिखे पर चाट के नाना प्रकार मिले, जिसमें पानी पूरी, टिकिया, दही भल्ला, पापड़ी चाट, आलू की टिक्की आदि थे। एक नयी डिश भी देखने को मिली कुल्हड़ में टमाटर की ग्रेवी मे पापड़ी छोले मटर पनीर प्याज़ ऊपर से भुना ज़ीरा, सोंठ, अमचूर धनिया नमक नींबू मिर्ची खट्टा मीठा तीखे सभी स्वाद एक-एक ग्रास में आते जाएँगे और आप टमाटर चाट का अनोखा आनंद कभी भूल नहीं पाएँगे।
यह सब आप आधे घंटे में खाकर निकल सकते हैं। शाम चार बजे से यहाँ भीड़ लगनी शुरू हो जाती है सब धैर्य के साथ अपनी बारी आने का इंतज़ार करते हैं। साल दर साल यही सिलसिला चल रहा है। दुकानदार की कोई मंशा नहीं है दुकान बड़ी करने की या ग्राहक के लिए सहूलियतें बढ़ाने की। जैसा था वैसा ही आज भी है पहले भी ख़ूब चल रही थी आज भी ख़ूब चल रही है।
अगले दिन हम सुप्रसिद्ध काशी विश्वनाथ व माँ अन्नपूर्णा के मंदिर के दर्शन के लिए गए। भक्ति, विश्वास और आस्था की पराकाष्ठा यहाँ दिखायी देती है। काश, हम इन्हें सुचारू रूप से व्यवस्थित कर पाते। प्रागैतिहासिक धार्मिक स्थल आपसी धर्मों की सहिष्णुता की मिसाल बन सकते हैं पर राजनीति यहाँ भी फ़न उठाए साफ़ नज़र आती है।
बाहर आकर हम सुबह का नाश्ता करने कचौरी गली पहुँचे। चारों तरफ़ भरवाँ कचौरी, जलेबी की सुगंध सुबह की धूप के साथ फैल रही थी। आलू , पूरी कचौरी, जलेबी यहाँ का सुबह का नाश्ता है जो यात्रियों के लिए ११ बजे तक उपलब्ध रहता है। साथ ही श्री राज बंधु की मिठाइयाँ या ठठेरी बाज़ार के राम भंडार की छेने की मिठाइयाँ, लाल पेड़े, बेसन के लड्डू, बर्फ़ी आदि खाए बग़ैर काशी की भोजन माला पूरी तरह नहीं जपी जा सकती बनारस के पान सदियों से जगत प्रसिद्ध हैं। आम घरों में पानदान अलग से बेइंतहा ख़ूबसूबसूरत संदूकची की तरह सज़ा दिखेगा। खाने के बाद पान खाना और खिलाना यहॉं की नायाब तहज़ीब है। क्या मूवीज़, क्या साहित्य आम बनारसी बाबू आपको मुँह में पान दबाए ही मिलेगा। पान का दब-दबा सब तरफ़ दिखायी देगा।
बनारस घूमे और सारनाथ, रानी लक्ष्मीबाई की जन्म स्थली और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी ना गए तो शायद यहाँ आना ही अधूरा रह जाए।
सारनाथ:
ढलते सूर्य की लाली चारों तरफ़ मोहक वातावरण बना रही थी हम विशाल बुद्ध भगवान की मूर्ति के समक्ष गुमे हुए, कुछ डूबे
हुए, अन्तर्निहित भावों से परिपूर्ण खड़े थे तभी मन्द्र पंचम और धैवत के स्वरों में बद्ध तिब्बती लामाओं के मन्त्र चारों तरफ़ गूंजने लगे। वातावरण पूरी तरह बुद्धमय हो गया एेसा लगा जैसे तिब्बत की मोनास्ट्री में ऑंखें बन्द किए हम खड़े हैं। मन्त्र भले ही हमें नहीं आते थे पर उनके प्रभाव में हम सराबोर थे।
ओम् मनि पद्मे हम्म….ओम् मनि पद्मे हम्म…..
दीपक ने कुछ लामाओं से बात की और भरपूर आशीष पाया। वहॉं से हम पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में निकले अवयव देखने गए। राजा अशोक की लाट का अवशेष आज भी वहॉं आकर्षण का केन्द्र है। दो बड़े-बड़े बौद्ध स्तूपों के चारों तरफ़ बौद्ध सैलानी मन्त्र पढ़ते हुए घूम रहे थे।आस्था और विश्वास का शान्त संगठित स्वरूप हमें यहॉं देखने को मिला।
जन्म स्थली:
सन १८३५ में बाँसवाड़ा, असि में रानी लक्ष्मीबाई का जन्म काशी में हुआ था। उनके पिता मोरोपन्त ताम्बे पेशवा बाज़ीराव द्वितीय के यहाँ काम करते थे। माता भागीरथी देवी ने पुत्री को नाम दिया था मणिकर्णिका जो उनके देहावसान के बाद मनु में परिवर्तित हो गया। मनु के पिता माँ की मृत्यु के बाद बिठुर में रहने लगे। मनु पेशवा बाज़ीराव के संरक्षण में नाना पेशवा के साथ पली बढ़ीं। उनके बचपन का चित्रण श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान ने बहुत ख़ूबी से किया है
कानपुर के नाना की मुँहबोली बहन छबीली थी
लक्ष्मीबाई नाम पिता की वो संतान अकेली थी
नाना के संग पढ़ती थी वो नाना के संग खेली थी
बर्छी ढाल कृपाण कटारी उसकी यही सहेली थी
सन १८४२ में मनु का विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ। अब मनु रानी लक्ष्मीबाई के नाम से प्रसिद्ध हुई।
सन १८५७ की क्रांति की वो पहचान बनी। गीता पाठ और शिव अर्चना उनका नियम था। पहली महिला सशस्त्र सेना उन्होंने बनायी। महिला सशक्तिकरण की वो मिसाल बनी। यह वो महिला थी जिसने कायर हिंदुस्तानियों को भी अंग्रेज़ों की गोलियों के सामने ला खड़ा किया। स्वयं नींव का पत्थर बनी पर हिंदुस्तानियों को जगा गयीं।
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी
यह तेरा बलिदान जगाएगा स्वतंत्रता अविनाशी
तेरा स्मारक तू ही होगी तू ख़ुद अमिट निशानी थी
बुंदेले हरबोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसीवाली रानी थी।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय :
सन १९०५ में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने हिंदू विश्वविद्यालय का स्वप्न देखा जो सन् १९११ में थिओसोफ़िकल सोसायटी की ऐनी बेसेंट के साथ मिलकर साकार हुई। अगले चार वर्ष तक फ़ंड रेजिंग का काम चला और काशी नरेश प्रभु नारायण सिंह जी के सहयोग से ५.३ किलोमीटर का क्षेत्र यूनिवर्सिटी खोलने के लिए दिया गया। उनके साथ सर रामेश्वर बहादुर सिंह दरभंगा महाराज भी थे। सन् १९१६ में विश्वविद्यालय की नींव पड़ी। उनके अथक परिश्रम का ही प्रभाव है कि आज यहॉं ६ मुख्य संस्थान हैं, १४ फैकल्टी हैं और १३२ डिपार्टमेंट हैं जिनमें ३०,००० से ऊपर विद्यार्थी पढ़ते हैं। यूनिवर्सिटी का इंजीनियरिंग कॉलेज सन २०१२ में IIT Banaras बन चुका है।
हम यहाँ सर्वप्रथम महामना स्मृति हाल में गए। उन्हें श्रद्धांजलि दी और उसके बाद संग्रहालय ‘भारत कला भवन’ देखा यह सन् १९२० में गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर व अवनीन्द्र नाथ टैगोर की छत्र-छाया में बना था, बाद में इस पर राय कृष्णदास ने बहुत काम किया।सारनाथ की खुदाई से मिले अनेक प्राचीन प्रस्तर खण्ड देखने को मिले जिन्हें हमने कभी पाठ्य पुस्तकों में देखा या पढ़ा था।
सर डा.शान्ति स्वरूप भटनागर द्वारा रचित कुलगीत यहॉं की विद्यार्थी गीत परम्परा है
मधुर मनोहर अतीव सुन्दर, यह सर्वविद्या की राजधानी।
यह तीन लोकों से न्यारी काशी।
सुज्ञान धर्म और सत्यराशी।।
बसी है गंगा के रम्य तट पर,यह सर्व विद्या की राजधानी।
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