मुमुक्षु भवन: जीना यहाँ मरना यहाँ…इसके सिवा जाना कहाँ
काशी लाभ ‘मुक्ति भवन’ के दर्शन करने के बाद दीपक ने डायरी से नया पता निकाला मुमुक्षु भवन, आनंदबाग़, भेलुपुर वाराणसी।
काशी के घाटों की चहल -पहल हम बहुत समीप से देख चुके थे। सभी घाट गंगाजी में उतरते हैं और चंद्राकार बहती हुई गंगाजी उत्तर की तरफ़ मुड़ जाती हैं। काशी प्राचीन काल में दो नदियों के बीच बसायी गयी थी। उत्तर में वरुणा नदी और दक्षिण में असी नदी, ये दोनों धाराएं गंगाजी में मिल जाती हैं।
काशी का एक नाम अविमुक्त भी है। मृत्यु यहाँ उतनी ही आनंद दायक है जितना जन्म। यहाँ जीवन प्रतिपल मृत्यु की छाया में पलता है। मृत्यु के देव ‘महादेव शिव’ माने जाते हैं और काशी ‘शिवनगरी’। जो लोग यहाँ अच्छी मृत्यु की इच्छा से आते हैं उन्हें यह नगरी हर हाल में स्वीकार करती है। प्राचीन काल से ही यहाँ बहुत सी सराएँ, धर्मशालाएँ और अमीर परिवारों द्वारा बनाए गए भवन हैं जो कुछ समय के लिए मरणासन्न व्यक्तियों को आश्रय देते हैं। हम ऐसे ही भवन की तलाश में भेलुपुर पहुँच गए।
मुमुक्षु भवन बाहर से साधारण बहुत से कमरों का हॉस्टल लगता है पर अंदर जाने पर हमें बहुत कुछ दिखाई दिया। दाहिने हाथ वेद पाठशाला के विद्यार्थियों से मिलना हुआ। किशोर वय के दण्डी विद्यार्थी बहुत तेजोमय और प्रभावशाली लग रहे थे। यह भवन काशी मुमुक्षु भवन सभा द्वारा संचालित है। इसकी स्थापना सन १९२० में असी केदारखंड में पंडित घनश्याम दत्त चौमल जी ने की थी। प्रसिद्ध राजा बलदेव दास बिरला ने ज़मीन और पैसे से मदद की थी। इसका उद्देश्य भी उन लोगों को स्थान मुहैया करवाने का था जो अपने जीवन के अंतिम दिन काशी में ही बिताना चाहते थे। इसमें ३०० लोगों के रहने की व्यवस्था है।यहाँ के संचालक श्री मनीष पांडे बताते हैं कि सन ५० के दशक में यहाँ सभी कमरे भरे रहते थे। लोगों की जीवन शैली बहुत सरल और धार्मिक थी।उस समय भारतीयों की औसत आयु ५०-५५ वर्ष ही थी। लोग धार्मिक कर्म- काण्डों और पंडितों से बहुत जुड़े हुए थे। काशी में मृत्यु से शरीर की आवाजाही समाप्त हो जाएगी, इस धारणा पर उनका विश्वास ही नहीं गहरी श्रद्धा भी थी। इसीलिये यहाँ चार मंदिर, यज्ञशालायें बनवायी गयीं। आज भी पूजा, आरती, भोग, धार्मिक पर्व सभी मनाए जाते हैं। यहॉं आनेवाले बुजुर्ग अपनी क्षमता के अनुसार पैसा देकर बुकिंग करवाते हैं। जो नहीं दे सकते उनके रहने की भी कोई ना कोई व्यवस्था हो ही जाती है।
मुमुक्षु भवन में हमने ऑफ़िस के बाद अंदर कई गलियारे देखे जो अलग-अलग इमारतों की तरफ़ जा रहे थे। हम जैसे ही मुड़े तो एक गुड़हल की झाड़ी के नीचे बैठी श्रीमती उर्मेल मिलीं। इन्हें बचपन से ही आँखों से बहुत धुँधला दिखायी देता है। ये बिहार के देवभूमि जिले से बहुत पहले यहाँ आ गयी थीं। इनके पिता ने इनका ब्याह एक ग़रीब लड़के से कर दिया और उनके लिए एक दुकान खुलवा दी। पिता वापस चले गए। इधर कुछ सालों बाद पति की मृत्यु हो गयी। पिछले तीस वर्षों से उर्मेल रुई की बत्तियाँ बना कर बेचती हैं और उससे अपना गुज़ारा चलाती हैं। घर में माता -पिता नहीं तो कोई और पूछता भी नहीं। यहीं एक बदहाल कुठरिया में जीवन बिता रही हैं। आँखों से बहुत धुँधला दिखता है पर आज भी सुबह तीन बजे उठकर गंगाजी में नहाने जाती हैं और पूजा अर्चना करती हैं। आस-पास के लोगों ने इनको हमेशा ही इसी चबूतरे पर बत्तियाँ बनाते देखा है। कुछ बत्तियाँ ख़रीदकर हम आगे बढ़े।
राह में हमें श्री मन बुध त्रिपाठी जी मिले जो ८६ वर्ष के हैं। ये पिछले १७ साल से यहाँ रहते हैं। इनके बेटे इन्हें रुपया-पैसा भेजते हैं पर पिछले दस साल से कोई मिलने नहीं आया। रामजी की इच्छा समझ ये सब्र कर लेते है।
अंदर एक अहाते में बहुत सी स्त्रियाँ और साध्वी गिरि मिलीं। उनमें सबसे पहले हमारी बातचीत श्रीमती सती देवी से हुई। उनके पति किसी बड़े व्यापारी की कोठी में मैनेजर थे। घर में दो बहुएँ भी आ गयी थीं ।पति के रिटायर होने के पश्चात इनके पुत्र को वहीं नौकरी मिल गयी और एक पुत्र जो वक़ील है अलग घर लेकर रहने लगा। कुछ दिनो में हालात ऐसे हो गए कि पति-पत्नी को मुमुक्षु भवन की शरण लेनी पड़ी। शुरू में तो बच्चों ने सहायता की, फिर आना -जाना बन्द हो गया। बहुत मुश्किल के दिन काटे।पति का भी दिल के दौरे से देहांत हो गया। अब कहीं से कोई सहायता नहीं थी तब मारवाड़ी समाज वाराणसी ने इनके लिए तीन हज़ार रुपयों की पेन्शन का प्रबंध कर दिया, जिससे गैस और एक वक़्त की रोटी का इंतज़ाम हो जाता है। कपड़े बिस्तरे साल छह महीने में दानवीर लोग दे जाते हैं। मुँह पर हाथ रख कर बोलीं,” समय कट रहा है। चुप हूँ। जीवन से क्या सीखा? मैं ख़ुद ही सीख हूँ। सीख लो।”
उनके बाद हमने गेरुआ वस्त्रधारी साध्वी गिरि जी से बात करने का प्रयास किया। पहले तो वो अनमनी सी रहीं फिर बोलीं,”मैं किसीसे कभी बात नहीं करती हूँ। इनसे पूछो, इन्होंने मेरी कभी आवाज़ सुनी? पर तुम से बात करने का मन कर रहा है। मैं अपने गुरुजी के साथ बहुत घूमी हूँ। उनकी सेवादार थी। बचपन से मुझे गॉंव में घूमती माईयों की गेरूआ साड़ी बहुत आकर्षित करती थी। माँ मुझे स्कूल भेजती थीं। मैं माईयों को ढूँढती थी। एक दिन मैंने ऐलान कर दिया। मुझे आगे नहीं पढ़ना। माई बनना है। मेरी माँ बहुत चिल्लायीं, बहुत नाराज़ हुईं पर मुझे तो ज़िद्द थी तब गाँव के लोगों ने माँ को समझाया। वो ख़ुद मुझे गुरुजी की सेवा में द्वारहाट कुमाऊँ हिल्ज़ छोड़ कर आयी। बहुत रोई पर गुरुजी ने समझाया, अगर ये ठीक से नहीं रहेगी तो हम ख़ुद वापस छोड़ देंगे। मैंने गुरूमाई को उनकी मृत्यु पर्यन्त कभी शिकायत का मौक़ा नहीं दिया। मेरा नाम बदला गया। साध्वी बनाने के लिए बहुत कुछ ऐसा किया जाता है जो बताया नहीं जाता। बहुत कठिन रास्ता है। अब क्या है। मेरे बहुत शिष्य हैं यहाँ। भगवान भजन करती हूँ और पड़ी रहती हूँ। दो रोटी सब्ज़ी बनी रखी है खाओगे? पता नहीं क्यूँ इतने सालों बाद मैं इतना बोली। पूछो इनसे, इन्होंने मेरी कभी आवाज़ भी सुनी है?” हमारे सामने अपने गुरु की सेवा के फल स्वरूप सुंदर, संतुष्ट जीवन बिताने वाली भक्तिन बैठी थीं। सेवा में ही सुख है। उनके जीवन की सीख है।
साध्वी जी से मिलने के बाद हम केरल से आईं सावित्री जी ८३ वर्ष से मिले।उन्हें अपनी भाषा ही समझ में आती है। ध्यान से देखने पर हमने उन्हें सफ़ेद मोटे प्लास्टिक के हाथ से सिले अद्भुत जूते पहने देखा। हमारी सराहना उन्हें समझ में आ गई। उनके चेहरे पर खिली मन्द मुस्कान ने हमारी थकान हर ली। अनिता ने उनसे पूछा आप अकेली यहॉं घर से इतनी दूर क्यों रहती हैं? उन्होंने जवाब दिया कि घर पर उनकी सब ज़िम्मेदारियों की पूर्ति हो गई है। अब सिर्फ़ भगवान भजन करना चाहती हूँ। भाषा न जानने के कारण बहुत कम बोलती हूँ। अकेले ही ख़ुश हूँ।
इनके बाद हम बिमला जी से मिले। उनके पति किसी सरकारी नौकरी में थे। पति की मृत्यु के बाद उनको पेन्शन मिलती है जिससे वो अाराम का जीवन व्यतीत करती हैं। उस समय वो और दो स्त्रियाँ मिलकर तिल के लड्डू बना रही थीं, जो उन्होंने हमें भी खिलाए। घर में छोटा सा चौकी पर मंदिर सजाया हुआ है वहीं पंडित को बुलाकर पूजा पाठ करवाती हैं। ज़िंदगी में हर हाल ख़ुश रहना सीखा है। कभी किसीसे कुछ माँगती नहीं।
बिमलाजी से मिलने के बाद हम ऊपर की मंज़िल में श्री वी सूर्याकुमार सरमा जी से मिले। उनकी पत्नी और वे सही मायने में वानप्रस्थ का समय बिता रहे हैं। श्री सूर्यकुमार्जी DRDO आन्ध्र प्रदेश से रिटायर होते ही यहाँ आ गए थे। हैदराबाद में इनका घर है पर उसे अपनी एक बेटी को दे दिया है। बचपन में पढ़ने का साधन न होने से जल्दी ही घर से निकलना पड़ा। छोटी सी नौकरी के साथ पढ़ना आसान नहीं था पर सब कक्षाओं को चुनौती समझ अव्वल नम्बरों से पास किया।गृहस्थ जीवन बहुत सम्हाल के चलाया। तीन पुत्रियाँ हैं सब पढ़ी-लिखी हैं। काम करती हैं। एक अमरीका में है। ख़ुद को जितनी पेन्शन मिलती है बहुत है। यहाँ कुछ रेजिस्ट्रेशन फ़ीस देकर रहते हैं। दिन भर आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ते हैं। मित्रों से चर्चा करते हैं शाम को पाँच बजे सत्संग चलता है। घूमने जाते हैं। कभी-कभी आस पास के कॉलेजों से लेक्चर के लिए बुलाया जाता है तो ख़ूब तैयारी से जाते हैं। जीवन में सहज रहना सीखा है। सब कुछ धैर्य रखने पर अपने-आप होता जाता है। कुछ दिनों पहले गिर गए थे। कूल्हे की हड्डी बदली गयी। कठिन समय था। सब बीत गया। नई पीढ़ी को बताना चाहते हैं कि बुरे से बुरे वक़्त में भी अपने पर विश्वास नहीं खोना चाहिए, नियम के अनुसार समय बदलेगा और आप अपनी मन्जिल पा लोगे।
शायद यही वो अवस्था है जिसे कैवल्यम् कहा जाता है। भौतिक संसार पूरी तरह छूटता जा रहा है। ज्ञान की पिपासा इतने उत्कर्ष पर है कि शारीरिक कष्ट यूँ ही भूले जाते हैं। काशी का प्रभाव ही कुछ ऐसा है, जो देखने को मिलता है:
भक्तों की भक्ति में, देवों की शक्ति में
गंगा की धार में, घाटों की पुकार में
दीपों की ज्योत में, फूलों के हार में
हर मुमुक्षु ह्रदय की पुकार में ………….!
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