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चारों तरफ़ खिली धूप और सन १९०८ की बनी दोमंज़िला इमारत जो जीवन के सत्य की साक्षी है। उसके दरवाज़े हर पल, हर घड़ी खुले हैं। हवा के झोंके की तरह शरीर के बंधन में उलझी अात्मा यहाँ आती है। कुछ गहराती सांसें, अवचेतन मन, साथ छोड़ता शरीर और सही मौक़ा पाकर अनंत में विलय।

सब कुछ सहज धरती से जुड़ा। राजा हो या रंक सभी को इस प्रक्रिया से गुजरना है। मुक्ति भवन में अंदर के गलियारे में घूमते हुए कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है। वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते ग़रीबी-अमीरी, पद -प्रतिष्ठा, चाहत -दुश्मनी, ईर्ष्या-द्वेष सब गेट के बाहर ही तिरोहित हो जाता है यानी आधी उलझने तो स्वयं ही छूट जाती हैं।

श्री भैरव नाथ शुक्ला बताते हैं कि अधिकांश लोगों का अंतिम शब्द ‘राम’ होता है। मैंने परिवारों की लम्बे समय से चली आ रही दुश्मनियाँ भी यहॉं समाप्त होती देखी हैं। पुरानी बीमारियों से ग्रसित लोगों को राहत की मुस्कराहट से भरपूर देखा है। ईश्वर के प्रति कृतज्ञता से भरी आँखें भी देखी हैं।कर्मों के अनुसार मनुष्य का मानस बनता है और आत्मा उसके अनुसार पाँचों इंद्रियों के दशम द्वार में से किसी एक का मार्ग निकलने को चुनती है।

हमने बीच में उनसे पूछा गीता में भगवान कहते हैं तुम्हारे सभी कर्म मुझसे प्रेरित होते हैं तो बुरे कर्म भी क्या भगवान करवाते हैं? इस पर प्रकाश डालिए। शुक्लाजी ने कहा,” देखिए कर्म करना है लेकिन भगवान ने उसे समझने के लिए विवेक बुद्धि भी तो दी है। हर परिस्थिति में एक पक्ष सही होता है एक ग़लत, चलिये उसे ग़लत नहीं कहते निम्न कहते हैं। आप के पास गणेश बुद्धि यानी विवेक है। अपने स्वार्थ से ऊपर सोचिए तो आप विवेक शील माने जाएँगे। स्वार्थ में डूब गए तो छल-कपट का सहारा लेंगे। इसलिए बोलने से पहले, निर्णय लेने से पहले सोचना-समझना ज़रूरी है।इसीलिए जीवन में ज्ञान पुस्तकों से तो मिलता ही है पर ज्ञानी-ध्यानी, साधु-संतों के पास बैठने से अनुभव मिलता है। जो बड़े-बड़े ग्रंथों से ज़्यादा सिखा जाता है। मुक्ति के लिए -सालोक़्या, सान्निध्य, सामीप्य, सायुज्य, गतिगमन का अभ्यास होना चाहिए। अर्थात
सभी को एक दृष्टि से देखना (oneness), किसी गुरु की छाया में रहना(under tutelage), गुरु के पास रहना(nearness), गुरु से जुड़ना(get aligned) और आगे बढ़ना (move on).

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श्री शुक्लाजी मुक्ति भवन के मैनेजर हैं। सन १९७२ से यहाँ कार्यरत हैं। हमने उनसे पूछा इतने समय से यहाँ रहते-रहते बहुत से लोग आपके सम्पर्क में आए होंगे, जिन्हें आप भुला नहीं पाए। कुछ उन पर भी प्रकाश डालिए। उन्होंने बताया।’श्री राम सागर मिश्र’ एक ऐसे ही व्यक्ति थे। बहुत छोटे क़द के थे पर संस्कृत के प्रकांड विद्वान। पंडित मदन मोहन मालवीय के साथ उनका बहुत सम्पर्क था। उनकी यूनिवर्सिटी के पहले विद्यार्थियों में से एक थे। देखिए, गणित और विज्ञान का छात्र आगे चलकर संस्कृत का विद्वान बना। अंतिम दिनो में यहाँ पैदल चल कर आए। उनके छः भाई थे। घर के ज़मींदार थे। उन भाइयों में से सबसे छोटा श्री सत्य नारायण मिश्र उन्हें बहुत प्रिय था। उसे पढ़ाया लिखाया और PCS बनाया। ना जाने क्यूँ घर में क्या झगड़ा हुआ कि भाई-भाई अलग हो गए और घर में बाउंड्री बन गयी। सत्य नारायण इलाहाबाद में SP के पद पर काम कर रहे थे।

जब राम सागर मिश्र यहाँ आए तो पान का डिब्बा भी साथ लाए। यहीं सामने गद्दे पर बैठे और बोले,”हमारे लिए तीन नम्बर का कमरा ठीक कर दो। आज से सोलहवें दिन हम प्राण छोड़ देंगे।” भागवत पुराण के बहुत जानकार थे, चर्चा करते ही रहते थे। उन्होंने एकादशी व्रत किया। चौदस को एक बार फलाहार किया। बोले,”परसों शरीर छूटेगा। हमारे चालीस साल से बिछुड़े भाई से कहो वही हमें दाग देगा।अगर उससे ना मिले तो पुनर्जन्म होगा। हमारा मन उसके लिए विकल हो रहा है।”

हमने ख़बर भेजी तब तार ही भेजा जाता था। पंदरहवें दिन तक भाई नहीं आए। मिश्राजी सामने गद्दे पर बैठे ध्यान मग्न थे। अपना दूध का गिलास थोड़ा पीने के बाद हमें दिए और बोले कि तुम ही पी लो।हमने नहीं पिया। उधर हाईकोर्ट में कोई केस निबटा कर भाई भागे आए। आकर हाथ बॉंधकर खड़े हो गए। सोलहवां दिन चल रहा था। ये अशक्त बिस्तर पर पड़े थे। बाहर ‘हरे राम’ का कीर्तन चल रहा था। राम सागर जी ने उन्हें पहचाना और बोले,”सत्या आ गया क्या?” हमने हामी भरी। भरे मन से उसका हाथ पकड़ लिया और बोले,”तुम रोना मत। तुम्हारे आँसू मेरे मुँह में जाएँगे। आज से घर बच्चे सब तेरे संरक्षण में चलेंगे। घर की बाउण्ड्री तुड़वा देना। तू ही मुखिया रहेगा।” कहते-कहते प्राण छोड़ दिए। चेहरा एकदम शांत था।

उनका अंतिम संस्कार भाई ने ही किया। आज तक हम उनको भूल नहीं पाए। जब किसी की भगवान से समता हो जाती है मुक्ति निश्चित है। इसी तरह से एक बार एक चौसटठी मठ के महंत श्री विश्व नाथ पुरी जी भी आए थे।
उन्होंने पद्मासन बांधा और कुर्सी पर बैठे-बैठे ही साँस खींच ली। अगले ४८ घंटे तक शरीर उतना ही कोमल और मुख मुद्रा, मंद मुस्कान से खिली रही। हज़ारों भक्त आए। भजन कीर्तन, फूल मालाएँ चढ़ती रहीं। इतनी धूमधाम थी कि कोई उत्सव हो जैसे। उन्हें जल समाधि दी गयी। ऐसा सम्मान बहुत काम आत्माएँ पाती हैं।

अब एक और घटना सुनाता हूँ। एक दिन रात के नौ बजे कोई आठ-दस लोग अपने गाँव से एक वृद्धा नानी को लेकर आए। भवन में सभी कमरे भरे थे। सोलह परिवार थे। भादों का मौसम था। बाहर रिमझिम बरसात हो रही थी। जगह ना होने से यहीं गलियारे में बिस्तर बिछाकर लेट गए। चार आदमी बाहर गेट के पास घूमते रहे। चार अंदर नानी के पास लालटेन की रोशनी में बैठे थे। हमने फ़ार्म भरवाने की पेशकश की तो बोले,”हम तो पढ़े लिखे नहीं भैयाजी आएँगे, बस आते ही होंगे, वो ही भर देंगे।” ठीक है। हम फ़ार्म यहीं टेबल पर रख के ऊँघने लगे। तभी लगा कि कुछ लोग अंदर से बाहर गए। रात के दो बज रहे होंगे। हलचल हुई और भारी बूटों की आवाज़ करते बीस-पच्चीस पुलिसवाले भवन घेर कर खड़े हो गए। दरोगाजी आए। हमसे पूछा आज कौन-कौन यहॉं आए? हमें नानी का ही पता था। उनका स्थान दिखा दिया, तभी हमारा माथा ठनका, वहाँ और कोई नहीं था। वो बिलकुल अकेली बेसुध पड़ी थीं। दरोग़ा ने पूछा इन्हें कौन लाया? रजिस्टर दिखाइए। पर अभी तक रजिस्टर का काम हुआ ही नहीं था। हम भैयाजी, भैयाजी करते रहे। पुलिस वालों ने ही बताया कि ये नक्सली हैं। गाँव से आठ हत्याएँ करके निकले हैं। कोयला खदानों के मज़दूर थे वहीं ठेकेदरों से झगड़ा हुआ था। ख़बर मिली है कि काशी आए हैं। हमने कहा साहेब, इन्तज़ार कर लीजिए। सुबह होने दें। कुछ तो पता लगेगा। पर ना मालूम उनकी क्या सलाह बनी, सब सरकारी जीपों में भरकर चले गए। इधर नानी राम-राम पुकारने लगीं। पानी-पानी भी बोलीं। हम उन्हें उठाकर ऑफ़िस में ही ले आए। गंगाजल तुलसी मुँह में डालते रहे। देखते-देखते उनकी आँखें स्थिर हो गईं। सुबह होने को थी। हमें लग रहा था कि इनका दाह-संस्कार भी हमें ही करना पड़ेगा। पर नौ बजे के क़रीब वो सब एक बुढ़ऊ को लेकर आए और गाड़ी, पंडित भी साथ लाए। हम उन पर चिल्लाए, “जब आठ आदमी मारे तो नानी भी वहीं फूंक लेते, काहे हमारा फ़जीता करवाए?” बुढ़ऊ हमारे पैर पकड़ लिए और बोले,”आप पंडित हैं आख़िरी जल आपने दिया उन्हें मुक्ति मिल जाएगी। हम में से कोई भी इस लायक नहीं था। वो बहुत पूजा-पाठी थी।” उनकी आँखों से आँसू झर रहे थे। हम आगे कुछ कह ना पाए।वो राम नाम सत्य कहते किस घाट पे गए हमें पता नहीं। मणिकर्णिका पर तो पुलिस उनका इन्तज़ार कर रही थी। रजिस्टर में हमने नाम लिखा ‘नानी’, पुत्र पंडित भैरव नाथ शुक्ल।

शुक्लाजी आपने जीवन के इतने रंग देखे हैं। आपके जीवन की कोई ख़ास सीख जो आप सबको बताना चाहेंगे। वो बोले सर्वप्रथम ‘धैर्य’। हम कर्म और परिस्थिति का तालमेल बैठाकर चलते हैं। कोई कर्म ऐसा नहीं करते जिसे दूसरों से छिपाना पड़े। इसलिए झूठ बोलना नहीं पड़ता। परिस्थिति वश कुछ बताना नहीं हो तो चुप्पी साध लेते हैं। कभी किसी की अवहेलना (neglect)नहीं करते। परिस्थितिवश अपनी प्रतिक्रिया बहुत सोचकर करते हैं।

जी, बिलकुल सही……..
You can not control the outcome of a situation,you can only control your response to it.

धन्यवाद्।

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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