मुक्ति भवन: मृत्यु से मोक्ष तक का रास्ता
“काशी मरत मुक्ति करत एक राम नाम
महादेव सतत जपत दिव्य राम नाम
प्रेम मुदित मन से कहो राम राम राम
श्री राम राम राम श्री राम राम राम”….
बचपन में बड़ी बहन की मधुर आवाज़ में यह भजन बहुत बार सुना था। इसकी राम धुन सहज ही आकर्षित करती थी। उस समय काशी को हम ऐसे तीर्थ स्थान की तरह जानते थे जहाँ गंगा पर बहुत से घाट हैं। आम हिन्दू जन मृत्यु का वरण करने, मोक्ष की लालसा में अंतिम दिन वहीं बिताना चाहते हैं। हमारी दादी बनारस की बेटी थीं तो उनके मन में बनारस के प्रति अनन्य मोह था जिसे वो जताने में बिलकुल नहीं झिझकती थीं।
दादी की मृत्यु के तीसरे दिन घर में गरुड़ पुराण का प्रवचन आरम्भ हुआ।
पंडितजी मोक्ष दिलाने वाले क्षेत्रों के बारे में श्लोक पढ़ रहे थे “अयोध्या मथुरा माया काशी काँची अवन्तिका पुरी द्वारावती चैव सप्ताइता मोक्षदायिनी-
पंडितजी के स्वर कानों में घुल रहे हैं और दादी की मुस्कुराती छवि आँखों में आँसू भर रही है। आज तेरहवीं है। दादी के तकिए पर चिपका सफ़ेद बाल मैंने सम्हाल कर काग़ज़ में लपेट लिया और घर के मंदिर की ड्रॉर में रख दिया। शायद मैंने ख़ुद ही अपना लकी चार्म बना लिया था। घर के बड़े-बूढ़े हरद्वार जाकर तीसरे दिन ही दादी की अस्थियाँ विसर्जित कर आए थे जबकि उनकी इच्छा थी कि उनका तर्पण संगम इलाहाबाद या बनारस के किसी घाट पर किया जाए। बनारस पर चर्चा ज़ोर की चल रही थी क्यूँकि वहाँ हमारे रिश्ते के दादाजी रहते थे और इस पुण्य के काम में उनसे पूरी मदद की अपेक्षा थी। एक दिन ताऊजी को छोटी सी डिब्बी में रखी राख लेकर वाराणसी की ट्रेन चढ़ते देखा। बनारस के प्रति कौतुहल उसी दिन से जागृत हो गया। मेरी प्यारी दादी की अंतिम निशानी ताऊजी ने वहीं किसी घाट पर विसर्जित की होगी।
काशी मरत मुक्ति करत एक राम नाम ……………. कानों में गूँज रहा था मन में छोटी सी विचार की किरण कौंधी ,मैं भी अवश्य एक दिन बनारस जाऊँगी………….
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“मैडम, आप मेरे साथ बनारस चलेंगी?” फ़ोन पर दूसरी तरफ़ दीपक था। उसने अल ज़ज़ीरा का वीडिओ देखा था, जिसमें बनारस के मुक्ति भवन का ज़िक्र कुछ इस प्रकार किया गया था कि भारतीय हिंदू पूरे विश्वास के साथ बनारस में मृत्यु पाना चाहते हैं ताकि इस संसार के आवागमन से मुक्ति आसान हो जाए। विषय गूढ़ था और मेरे मन में छिपे बचपन की यादों से जुड़ा, सैलाब आँखों में भर ही रहा था मैंने तुरंत हाँ कहदी। हम मृत्यु का पास से साक्षात्कार करना चाहते थे। उन लोगों के बीच बैठ कर बतियाना चाहते थे जिन्हें अंतिम क्षणों में परिजन लेकर आते हैं ताकि प्राण वाराणसी में ही छूटें।
हमें उन महा प्रयाण को प्रस्थान करती आत्माओं में शिवत्व ढूँढना था।
हमारे टिकट्स बनारस के लिए बुक हो गए……
बनारस में आगमन का समय साँयकाल था। संध्या समय जैसे ही एयरपोर्ट से शहर में घुसे सड़क किनारे एक मंदिर में आरती, शंख, घंटियों की आवाज़ वातावरण को गुंजायमान कर रही थी। पुजारीजी बहुत तेज़ी से आरती की थाली घुमा रहे थे। दो तीन बच्चे और दो स्त्रियाँ भाव-विभोर आरती गा रही थीं। राह से गुज़रते हुए दर्शन करते हम आगे बढ़ गए। हमारे साथ साथी श्री मनोज शाही ने हँसते हुए बताया” यहाँ ३३ करोड़ देवी-देवता पूजे जाते हैं। सभी के मंदिर आपको बनारस में मिल जाएँगे। जितने देवी-देवता, उतने मंदिर, उतने पुजारी। उतनी ही उनकी तीव्र इच्छा कि यात्री आएँ और कुछ चढ़ाएँ। मैडम, आप बिलकुल किसीकी नहीं सुनेंगी।” आगे के रास्ते में बिलकुल अँधेरा था शायद मुख्य बस्ती अभी दूर थी। दुकानों की बनावट ७० के दशक की याद दिला रही थी। मुझे श्री केदार नाथ सिंह जी की कविता बनारस याद आ गयी:
इस शहर में धूल धीरे-धीरे उड़ती है
धीरे-धीरे चलते हैं लोग धीरे-धीरे बजते हैं घंटे
शाम धीरे-धीरे होती है,यह धीरे-धीरे होना
धीरे-धीरे होने की सामूहिक लय
दृढ़ता से बॉंधे है समूचे शहर को
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है।
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सुबह-सुबह की काशी के दर्शन करते हुए हमारी त्रयम्बक मंडली ने काशी का प्रसिद्ध आलू, पूड़ी, जलेबी का नाश्ता किया और मुक्ति भवन की तरफ़ चल दिए। चौराहा पार करते ही हमें एक शव यात्रा दिखायी दी। पहला साक्षात्कार ….सबके हाथ स्वतः ही जुड़ गए। मन सहम गया लेकिन आस-पास के लोग यंत्रवत अपना काम कर रहे थे किसी ने नज़र उठा के नहीं देखा। हम अागे बढ़ गए बाज़ार अभी अलसाया सा खुल ही रहा था, दो मिनट बाद दूसरी गली से एक और शव यात्रा आती दिखी। अब हम सहमें नहीं पर रुके ज़रूर, थोड़ी दूरी पर बाज़ार घना हो गया। यहॉं से हम पैदल ही जा सकते थे। गूगल मैप और लोगों से पूछते हुए हम गली के मुहाने पर पहुँच ही गए जहाँ कोने पर मलाई की खुरचन वाली मिठाई तैयार हो रही थी। दुकानदार ने मुक्ति भवन का नाम सुनते ही अंदर की तरफ़ इशारा कर दिया। हमें वहीं से मुक्ति भवन का बड़ा सा लोहे का गेट दिखाई दे रहा था।
बाहर से मुक्ति भवन बहुत भव्य लग रहा था। दो मंज़िल २०वीं शताब्दी की बनावट। गेट से अंदर जाते ही संचालक से मुलाक़ात हुई। मंदिर से पुजारी जी के भजन गाने की आवाज़ें सुनायी दे रही थी। उन्होंने भवन के व्यवस्थापक जी से मिलावाया। श्री भैरव नाथ शुक्ला ज्ञान के भंडार लगे। हमने उनसे पूछा, “इस भवन में रहकर क्या आपने मृत्यु का रहस्य समझ लिया?”
वे बोले, “जातस्य हि ध्रुवोमृत्यु ध्रुवम् जन्म मृतात्मा च।
तस्माद परिहार्ये अर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।
अर्थात् जिसका जन्म इस संसार में हुआ है, उसकी मृत्यु सुनिश्चित है और जो मृत्यु का वरण कर चुका है उसका जन्म भी होगा। जन्म-मृत्यु का नियम शाश्वत है उसपर दुःख क्यों करना चाहिए?”
मुझे मृत्यु से या मृत्यु के ग्रास में जाते व्यक्ति से ज़रा भी भय नहीं लगता। किस बात का डर? मैं सन् १९७२ में यहाँ आया, क़रीब १८-२० बरस का था। मुझे इस भवन के उद्देश्य ने बहुत प्रभावित किया। यह भवन प्रसिद्ध डालमियॉं परिवार ने १९०८ में अपने परिजनों के कल्पवास के लिए बनवाया था। परिवार के लोग आते थे। गंगा किनारे मौन, ध्यान पूजन में समय बिताते थे और डेढ़-दो महीने रहकर चले जाते थे। १९५८ में इसे ऐसे आश्रम में या अस्थायी निवास में बदल दिया गया जहाँ कोई भी इच्छुक व्यक्ति अंतिम सांसें ले सकें। उनसे कोई शुल्क नहीं लिया जाता। बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं। इस विश्वास में कि काशी में मृत्यु का साक्षात्कार जीवन चक्र की सबसे उत्कृष्ट सीढ़ी है जब मनुष्य की तीनों आँखें खुलती हैं। उसे त्रैयम्बकम यजामहे महा मृत्युन्जय का अनुभव होता है। भूत-वर्तमान सब दिखायी देता है। उसका रोम-रोम ऐसी आँख में परिवर्तित हो जाता है जो अपने जीवन की हर घड़ी का आकलन कर सकता है। शरीर छोड़ने से पहले उसकी आत्मा अपना लेखा-जोखा ख़ुद ही देख लेती है। यहाँ आप ख़ुद ही देख लीजिए, हर दो मिनट में चारों दिशाओं से मृत शरीर मणिकर्णिका घाट की तरफ़ सैलाब की तरह आते दिखेंगे। वहाँ चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती। डोम राजा का साम्राज्य है। वह हमेशा आपको सहायता देगा। उसके आदमी कुशा से लेकर कपाल क्रिया तक आपके साथ रहेंगे। आप एक आध घंटे के अंदर निवृत्त होकर गंगा स्नान के लिए जा सकते हैं। एक समय पर मणिकर्णिका घाट में तीस चिताओं को अग्नि दी जा सकती है। अधिकांशतः छः से आठ चिन्ताएँ जलती ही हैं।
काशी का प्रभाव ही ऐसा है कि बच्चा भी मृत्यु से नहीं डरता। हमने ही अब तक १२ हज़ार मृत्यु देख ली हैं। इसी भवन में आजतक १४ हज़ार ६सौ का रेकार्ड दर्ज है। श्री डालमियाँजी की बहन और बुआ का निधन यहीं हुआ था।सामने उनकी फ़ोटो लगी है।” ये सभी जानकारी श्री शुक्लाजी ने हमें बहुत आत्मीयता से बतायी।
व्यवस्थापकजी ने समय का सदुपयोग करते हुए बहुत से धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन मनन किया है। बात करते हुए बार बार पुराण, उपनिषदों की व्याख्या सुनाते हैं। कभी रामायण की चौपाइयाँ बोलते हैं तो कभी गीता के श्लोक। उनके चेहरे पर अनुभव की गरिमा विराजमान है।
मुक्ति भवन में पहले दस से पंद्रह कर्मचारी थे। आज सिर्फ़ चार स्थायी सदस्य हैं। एक समय था जब लोग बरामदों में भी बसेरा डाल लेते थे। कहीं जगह ही ना मिलती थी पर आज कल एक दो कमरे भर पाते हैं। काशी में हर घर में PG रूम्ज़ मिल जाते हैं और बहुत सालों से मुक्ति भवन की रंगाई पुताई नहीं हुई है। ऊपर की मंज़िल में पुराना किसी और घर का फ़र्निचर अटा पड़ा है। डालमियाँ परिवार के सदस्यों के पास वक़्त की कमी से इस तरफ़ ध्यान खींच पाना असम्भव ही है। उपेक्षित सा मुक्ति भवन अपने अस्तित्व के उद्देश्य से जकड़ा कराह रहा है।
व्यवस्थापकजी ने कुछ कमरे हर समय के लिए तैयार रखे हैं जो समय-समय पर उपयोग में लाए जाते हैं। मेडिकल कॉलेज बनारस से भी मरीज़ अंतिम क्षणों में यहाँ लाए जाते हैं। उनके रहने के लिए तीन से दस दिनों की अनुमति है। जिसमें गंगाजल, तुलसी, भजन आरती, संध्या, प्रभु मय वातावरण निःशुल्क मिलता है। अंतिम संस्कार के लिए भी मदद दी जाती है।
हम जब यहाँ विचर रहे थे तब बिहार प्रांत के रोहतास ज़िले के पहाड़पुर गॉंव से एक महिला श्रीमती फूल कुँवर पत्नी स्वर्गीय राम वचन दुबे अाई हुई थीं। मेडिकल कॉलेज ने ब्रेन हैमरेज कहके भर्ती नहीं किया और यहाँ भिजवा दिया था। हमने उनके दर्शन किए। उनके पौत्र श्री निरंजन दूबे उनके मुँह में कभी-कभी पानी की कुछ बूँदें तुलसीदल के साथ डाल रहे थे। पानी गले से नीचे नहीं उतर रहा था। उन्होंने बताया दादी एक सप्ताह पहले पूरी तरह ठीक थीं। अचानक इतनी हालत बिगड़ गयी तो पटना ले गए वहॉं से बनारस लाए।य हाँ मेडिकल कॉलेज से सही परिस्थिति समझ मुक्ति भवन का आश्रय ले लिया। श्रीमती फूल कुँवर की बेटी- दामाद भी साथ में थे। उनके दामाद श्री मार्कण्डेय तिवारी ने बताया”, हमारी सास बहुत जीवटवाली महिला थीं। ज़िंदगी में बहुत दुख झेले। पर सभी बच्चों को बहुत हिम्मत से पाला।उनके अपने बेटे धोखा दे गए पर उन्होंने उनके बेटों को भी पूरा सहारा दिया। आज दोनों बच्चे यहाँ उपस्थित हैं। उन्होंने हमेशा सिखाया कि अपनी मेहनत पर विश्वास रखो। ज़िंदगी में मज़बूती से रहो। ख़र्च कम करो। देखिए, काशी में अंतिम साँस तो नम्बर १ ज़िंदगी को ही मिलती है। आदेश भगवान का मिलता है। हमें आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि इन्हें मिलेगा।”
हमने पूछा,”आप मोक्ष का क्या अर्थ समझते हैं?”
गेहुआ रंग, मेहनती किसान की साक्षात परिभाषा जैसे फूफाजी ने कहा, मैडम, इस संसार में दुबारा कष्ट ना झेलने आना ही मोक्ष है। यहाँ से टोटल छुट्टी। ये संसार तो है ही दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों का हिसाब-किताब, पूरा हुआ चल दो बस।”
हमने मिलकर उनकी मातृवत सासजी के लिए गायत्री मंत्र का जाप किया और बाहर निकल आए।
(६ फ़रवरी सुबह माताजी का देहांत हो गया)
श्री केदार नाथ सिंह की कविता बनारस फिर कानों में गूँजने लगी……..
“तुमने कभी देखा है
खाली कटोरों में वसंत का उतरना
यह शहर इसी तरह खुलता है
इसी तरह भरता
और खाली होता है यह शहर
इसी तरह रोज़-रोज़ एक अनंत शव
ले जाते हैं कंधे
अंधेरी गली से
चमकती हुई गंगा की तरफ़…………”
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