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जिसकी नज़्मों में अहसास इतनी नज़ाकत के साथ सिमट जाता हो कि जैसे चॉंदनी में छिपी आफताब की किरणें। जिसने ज़िंदगी के हर लम्हे को अपनी कायनात में सितारे सा पिरो लिया हो ताकि जब उसका ज़िक्र आए तो वो नज़्म बनकर उतर आए। जिसका बचपन मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू से लबरेज हो और दिमाग़ के कोने में अपनी ख़ासी जगह घेरे बैठा हो। बचपन ने जब-जब मन के दायरों से बाहर झाँका तब-तब गीत, नज़्म, ग़ज़ल पन्नों पर उतर आयी। कितनी क़ाबिल-ए-तारीफ़ है इस शख़्स की समंदर सी गहरायी, जहाँ तमाम मोती यूँ ही गोता लगाते ही मिल जाते हैं।

किसी ने ठीक ही कहा है कि एक जनम का ज्ञान इंसान के लिए पूरा नहीं पड़ता। कई जनमों की कोशिशों और मेहनत के बाद कोई नायाब फ़नकार पैदा होता है। आत्मा जब पिछला हिसाब लेकर आती है तो इंसान ख़ुद ब ख़ुद निखरता चला जाता है।

दीना, पाकिस्तान में आपने सरदार माखन सिंह और सुजान कौर के घर जन्म लिया। लेखक बनने से पहले रंगों के साथ गाड़ियों पर अठखेलियाँ खेलीं। पिताजी ने नाम दिया संपूरन सिंह कालरा।

जिसके नाम में ही उस परम तत्व की छाया झलकती हो, वो सिर्फ़ रंगों से खेलने वाला फ़नकार कैसे रह सकता था। उसने कला के जिस आयाम को हाथ लगाया वही खिल उठा, वही गुलज़ार हुआ, लिखा तो बहुत लिखा, आज तक कलम चल रही है। अन्दाज़ वही और फ़िलासफ़ी कुछ नयापन लिए। मन के हर भाव को शायरी की रंगत में ढाल लेने में माहिर गुलज़ार ने पचास वर्षों से हिंदी, उर्दू सभी मजलिसों में अपना परचम लहराया है। प्रेम में सदैव रचे -बसे गुलज़ार आज भी उम्र के इस पड़ाव में वही तिलस्म पैदा कर सकते हैं जैसा उन्होंने बंदिनी के उस गीत में किया- ‘ मोरा गोरा रंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे…..

Eternally romantic गुलज़ार ने रोमान्स दर्शाने के लिए कभी चॉंद का अकेलापन, दर्द का दरिया, रेशमी डोरी या कभी चाँदनी रात का बिम्ब, प्रतीकों द्वारा सहज ही पिरो दिया। ये सिर्फ़ फ़िल्मी गीतकार ही नहीं, हिन्दी फ़िल्मी पटकथा लेखक और संवादकार भी हैं।

इन्होने नब्बे के दशक में फ़िल्मे बनायीं तो सभी मन को छूने वाली कला फ़िल्में- मेरे अपने, परिचय, कोशिश – कोशिश में मूक – बधिर दम्पति के जीवन की चुनौतियों को इतनी सहजता से ढाल दिया कि दर्शक ख़ुद मूक बने ठगे से रह गए।कमलेश्वर साहब का उपन्यास ‘काली आँधी’ पर आधारित इनकी फ़िल्म आँधी बहुत पसंद की गयी। अगली फ़िल्म बाबू शरदचन्द्र के उपन्यास ‘पंडित मोशाय’ पर ख़ुशबू नाम से बनायी।इसके बाद बहुचर्चित फ़िल्म मौसम आयी जिसे बहुत से फिल्मफेअर अवार्ड्स से नवाज़ा गया। इजाज़त फिल्म इनकी काव्यात्मक भावनाओं का फिल्मी रूपान्तरण मानी गई। १९८२ में अंगूर बनाने के बाद गुलज़ार साब ने टेलिविज़न सीरियल मिर्ज़ा ग़ालिब १९८८ में डायरेक्शन दिया। जो कई बरसों तक दूरदर्शन पर चला।

गुलज़ार साहब की काव्य यात्रा उर्दू, पंजाबी और हिंदी में परवान चढ़ी। हिंदी भी ऐसी जो सहज, सुगम और बोलचाल की भाषा खड़ी बोली, ब्रज, हरियाणवी और मारवाड़ी का पुट लिए थी। इनकी कविताएँ ‘चाँद पुखराज का’, ‘रात पश्मीने की’ और ‘पंद्रह पाँच पचहत्तर’ नामक संकलन में उपलब्ध हैं। इनकी कहानियाँ ‘रावी-पार’ और ‘धुआँ’ नामक पुस्तकों में संकलित हैं।

पड़ोसी देश के साथ शांति कायम करने के लिए ‘अमन की आशा’ नामक अभियान चला, उसमें कथ्यपरक(थिमैटिक) गीत ‘नज़र में रहते हो’ गुलज़ार साहब ने ही लिखा, जिसे शंकर महादेवन और राहत फ़तह अली खान ने स्वर दिया।गुलज़ार साहब ने ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह साहब के दो एल्बम ‘मरासिम’ और ‘कोई बात चले’ के लिए ग़ज़लें लिखीं।

गुलज़ार साहब की कविता यात्रा इतनी सहज है कि ज़िन्दगी के हर पहलू के लिए इनके पास शब्दों का खजाना है। इनकी रचनाओं में सूफ़ी रूहानियत बेमिसाल है।

गुलज़ार साहेब की रचनाओं से मिले कुछ फ़लसफे:

1. हर इंसान पहला रोमान्स सिर्फ़ अपने-आप से करता है।

2. हरेक के अंदर एक बच्चा हमेशा ज़िंदा रहता है जिसे रहना भी चाहिए।

3.ज़िंदगी का हर पल अपने आप में एक कविता है जिसे समझने के लिए संजीदा दिमाग़ और समझाने वाली भाषा का ज्ञान होना चाहिए।

4.मुसीबतें खुदा की नियामते हैं उन्हें स्वीकार कर चलने से ज़िंदगी बहुत ऊँचाइयों तक ले जा सकती है। बहुत कुछ खोकर ही कुछ हासिल हो पाता है।’

5.पुरानी लकीरों को बहुत देर तलक पीटते रहने से दायरा छोटा रह जाता है। दायरों से बाहर निकलने में ही भलाई है।

6.रूमानी रोमान्स और रुहानी रोमान्स में फ़र्क़ समझना ज़रूरी है। इश्क़ वो ख़ुशबू है जो फैलती है दोनों के लिए, जिसमें यार भी वही है और आशिक़ भी वही।

7.हरेक की ज़िंदगी में एक मुक़ाम आता है जिसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। शायद उसे कामयाबी का पहला क़दम कहते हैं।

8.सफलता हासिल करने के लिए दिल में आग धधकनी ज़रूरी है, चाहे वो ख़ुद का जुनून हो या बाहर से मिली हालातों की लगायी।

9.सबके साथ दोस्ती निभाने का हुनर सीखना चाहिए। अपने अंदर एक ऐसी आँख जगाओ जो दोस्त की ख़ूबियों को समझने और कमियों को नज़रान्दाज करने में माहिर हो सके।

10.अंत में खुदा ही सबसे बड़ा यार है उसे समझने के लिए अपने आस-पास के लोगों की भिन्न परिस्थितियों में प्रतिक्रियाओं को समझने की निहायत ज़रूरत है।

11.बर्दाश्त करो, जैसे भी हालात हों बर्दाश्त करो। अगर ज़िंदा हो तो वही बहुत है ज़िंदगी नेक नीयत वाले इंसान के कदमों में लोटती है।कोई ताक़त उसे आगे बढ़ने से रोक नहीं सकती।

12.अपनी जड़ों को मत भूलो पर तुम्हें सिर्फ़ फूल नहीं बनना, उसकी महक बन कर कायनात में फैलना है बंधना नहीं है।

13.रोमान्स ही है जो प्रेम, इश्क़, लव की परिभाषा समझाता है, बाक़ी सब शब्द हैं कोरे शब्द।

सरल और सफल इंसान ख़ुद की नुमाइश नहीं करते, जग उनकी ख़ूबियाँ एक स्वर से ज़ाहिर करता हैं।

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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