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बहुत सही नारा है। हर गली-मुहल्ले, टेलिफोन वार्तालाप, स्कूल, यूनिवर्सिटी की कैंटीन या नुक्कड़ नाटक के dialogue में अक्सर सुनायी पड़ रहा है। Change- yes, Change in what?

परिस्थिति, वातावरण, राजनीति या आर्थिक नीति? कहाँ चाहिए change? इस change को लानेवाला कौन है?

अलादीन का चिराग़-जिन्न या देश का युवा? जो सोचता बहुत है दम-ख़म भी रखता है पर पहल उठाने से कतराता है। अमीरी-ग़रीबी की दुहाई देता है। इस देश को सँवारने वाले सिर्फ़ अमीर ही होते तो लाल बहादुर शास्त्री, बाबा आमटे, डॉक्टर APJ अब्दुल कलाम, डॉक्टर मनमोहनसिंह, श्री नरेन्द्र मोदी इस देश के खिवैया ना बन पाते। हम सभी इस संसार में कुछ अनोखी नैसर्गिक क्षमताएँ लेकर आए है। उन्हें पहचानने के लिए सर्वप्रथम अपने नेक ख़यालों पर विश्वास होना ज़रूरी है।

लाना चाहती हूं मैं बदलाव

गंदी राजनीति में

सड़े गले रीति-रिवाजों में

संकीर्ण विचारों में

टूटते परिवारों में

लोगों की नैतिकता में

नौनिहालों की सोच में

किसानों के हल में

सेना के हथियारों में

विदेश की नकल में

युवतियों की पोषाक में

युवकों के आचार में

व्याप्त भ्रष्टाचार में

वैश्विक संबंधों में

पर मैं अकेली

खदेड़ी जाती हूँ

हर देश, हर शहर

गली-कूचों से लगी हूँ

संघर्ष में बदलाव के कि……।

साभार-सुश्री कविता गौड़

इस कविता को पढ़कर बहुत सी सम्भावनाएँ खुल जाती हैं। समाज का हर फ़ील्ड बदलाव की उद् घोषणा कर रहा है। चुनो और करो – homework as simple as that.

विकास संसार का दो प्रकार से हो रहा है, आंतरिक क्षमता का विकास जिसमें व्यक्तिगत विकास आता है। दूसरा है बाहरी विकास-बेहतरीन सुख-सुविधाओं से भरपूर ज़िंदगी। नित नए बाज़ार के उत्पाद कम्प्यूटर, मोबाइल, टी वी इत्यादि। क्या हम इससे मुँह मोड़ लें? पुरातन जीवन शैली अपनाएँ या इसी में उलझकर स्ट्रेस से भरपूर जीवन जिएँ?

हमारा देश बहुत समय से विकासशील देशों की कतार में खड़ा आशा भरी निगाहों से बाड़ के उस पार छलाँग लगाने की कोशिश कर रहा है पर आंतरिक आपा-धापी इस क़दर कोहराम मचा देती है कि एक पैर इधर और एक पैर उधर जाते-जाते पीछे खींच लिया जाता है। देश का युवा क़ाबिल होते हुए भी ‘इन हालातों से कुछ ना मिलेगा’ सोचकर अकेले ही कंगारू लीप लगाकर दन्न से विकसित देशों में बेहतर ज़िंदगी की चाह में छलाँग लगा चला जाता है।ध्यान से देखें तो विकसित देश की मृगतृष्णा क्या है? भ्रष्टाचार मुक्त दैनिक जीवन? कम जनसंख्या, साफ़-सफ़ायी, मशीनीकरण, रुपए के मुक़ाबले वहाँ की करेन्सी या रोज़गार के नए चान्स?

सबसे पहले समझ में आता है रोज़गार के नए चान्स। बहुत से रिसर्च फ़ील्ड्ज़ अभी भारत में खुले ही नहीं हैं। विदेशों में यूरोप और अमेरिका में रिसर्च पर अथाह पैसा ख़र्च किया जाता है। रिसर्च के साथ नए फील्ड्स खुल जाते हैं। पर क्या हमारे युवा उम्र के इस पड़ाव में जहाँ ज़िंदगी की किताब खुली ही है कुछ वर्ष देश के नाम न्योछावर नहीं कर सकते? आज़ादी मिले ७० वर्ष बीत गए हैं बदलाव तो अनिवार्य है। बदलाव ही तो सच है। जो बदलाव की सोचेगा वही तो क्रांति लाएगा। वैचारिक क्रांति, सामाजिक क्रांति, आर्थिक क्रांति, हमें आज ज़रूरत है सभी क्षेत्रों में नवीनीकरण की। नयी सोच-नए आयाम। आज समय आपके अनुकूल है। सोशल मीडिया की पहुँच उन क्षेत्रों तक है जहाँ कभी कल्पना नहीं की जा सकती थी।

इतना कुछ है अभी देश को विकसित करने के लिए जो सिर्फ़ और सिर्फ़ युवा पीढ़ी ही अपने हाथ में लेकर कुछ कर दिखा सकती है। अापने देश के बेहतरीन इन्स्टिट्यूट्स से डिग्री हासिल कर ली है अब समय आया है इस डिग्री के प्रति सच्चाई समझने का। कम से कम एक वर्ष अंडर्प्रिविलेज्ड समाज के बच्चों को आप पढ़ायी में मदद कर सकते हैं। कम्प्यूटर कोडिंग सिखा सकते हैं। प्लम्बिंग, इलेक्ट्रीशियन, ऑटो रिपेयर, हार्डवेयर रिपेयर, बूटीक प्रबन्धन, आदि-आदि। इन्हें तकनीशियन बनाने में एक दो साल ही लगेंगे पर उनकी आजीविका का साधन सुलभ हो जाएगा। अपने आस-पास के ग़रीब बच्चों को पढ़ाइए। यही सही मायने में बदलाव लाएगा।

गीत अब बदलाव के हम साथ मिलकर गाएँगे

चल पड़े हम लोग तो कुछ और भी आ जाएँगे ।

अन्त्योदय से देश का उदय…

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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