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जिसने चेतना को झकझोर दिया। दिसम्बर का महीना, कड़ाके की सर्दी से सारा उत्तर भारत काँप रहा था। चारों ओर कुहासे की चादर फैली हुई थी। आम आदमी क्या पशु-पक्षी भी अपने-अपने नीड़ों में घुसकर सर्दी से बचने का प्रयास कर रहे थे, ऐसे ही समय में मुझे एक अत्यावश्यक कार्य से अपने दो छोटे बच्चों के साथ शहर से बाहर जाना पड़ा। ट्रेन बीच-बीच में रूकती हुई चल रही थी। कई बार तो ऐसा लगा कि यह सफ़र कभी समाप्त ही नहीं होगा, तभी ट्रेन फिर रुक गयी। सामने थी दिल दहला देने वाली ट्रेन दुर्घटना जिसका हमें चलने से पहले पता ही ना था। चारों ओर चीख़-पुकार मची हुई थी। अंधेरे में भी लोग इधर-उधर भागकर जान बचाने का प्रयास कर रहे थे। हमारी ट्रेन दूसरी लाइन पर धीरे-धीरे सरक रही थी। हम सब सहम गए। मैंने अपने बच्चों को कसकर सीने से चिपका लिया और अपने को कोसने लगी कि अरे, आज निकलना क्या इतना ज़रूरी था? जो मैं इतने भयंकर मौसम में निकल पड़ी।

रात गहराती जा रही थी किंतु ट्रेन की गति तेज़ नहीं धीमी ही चल रही थी। जैसे-तैसे मैं अपने गंतव्य स्टेशन तक पहुँची। ट्रेन से बाहर निकली तो चारों ओर पसरे सन्नाटे से उस भीषण सर्दी में मेरे हाथ-पैर पसीज गए क्यूँकि जो सज्जन मुझे लेने आने वाले थे वे कहीं नज़र नहीं आ रहे थे। तभी अचानक एक सभ्य व्यक्ति मुझे दिखाई दिए। मैंने उनसे बात करी। वो उस परिवार को अच्छी तरह जानते थे जहाँ मुझे जाना था। उन्होने हमें भरोसा दिलाया और ईश्वर को याद करते-करते मैं अपने बच्चों का हाथ कसकर पकड़े हुए उनके पीछे-पीछे बढ़ चली। उस कोहरे में उन सज्जन के अतिरिक्त कुछ और दिखायी नहीं दे रहा था। उस दिन मैं ट्रेन दुर्घटना के कारण पहले ही भयाक्रान्त थी। किसी अनहोनी की आशंका जबरदस्त सता रही थी पर कहीं तो मुझे विश्वास करना ही था। गंतव्य तक हमें छोड़कर वे सज्जन उसी कोहरे में कहीं खो गए और मुझे अाभार प्रकट करने का समय भी नहीं मिला।

ऐसा प्रतीत हुआ कि उन सज्जन के रूप में स्वयं ईश्वर ही मेरी सहायता व सुरक्षा हेतु आए थे। उस दिन से मैंने ठान लिया कि यदि कोई भी मुझे जीवन में असहाय हालत में मिलेगा तो मैं उसकी समय पर सहायता अवश्य करूँगी। तब से आजतक मैंने इस श्रंखला को टूटने ना दिया। मैं विद्यार्थियों को भी यही समझाने का प्रयास करती हूँ कि आपके छोटे से प्रयास से यदि किसी के चेहरे पर मुस्कान की एक किरण खिल सके तो ऐसा प्रयास अवश्य करें।

किसी की भी सामयिक सेवा सच्ची सेवा है।

समाज में सन्तुलन बनाए रखने के लिए समाजोपयोगी कार्यों को बच्चों को भी सिखाना चाहिए। विद्या का सही मायने में उपयोग तो परोपकार के लिए ही होता है। तभी विद्या फलीभूत होती है, उसका दायरा बढ़ता है और वह अज्ञान के अंधकार में भटक रहे लोगों को जीवन जीने की राह सिखाती है। जिससे स्वयं को भी अपार संतुष्टि व आनन्द प्राप्त होता है।

यदि आपको भी जीवन में कभी किसी से अनपेक्षित सहायता या सहयोग मिला हो तो कृपया इस श्रंखला को आगे बढ़ाएं और किसी भी ज़रूरतमंद व्यक्ति की सहायता अवश्य करें।

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प्रोजेक्ट फ्युएल द्वारा हम चाहते हैं कि हमारे देश के गुणी एवं प्रेरक अध्यापकों को स्कूल की सीमा के बाहर भी अपने अनुभव भरे ज्ञान बाँटने का अवसर मिले। इस समूह के निर्माण से ना केवल अध्यापकों को अपनी बात कहने का मंच मिलेगा बल्कि अपनी कक्षाओं से बाहर की दुनिया को भी प्रभावित और जागृत करने की चुनौती पाएंगे। आज यह प्रासंगिक होगा कि हम एक पहल करें हिंदी के लेखकों और पाठकों को जोड़ने की।हम चाहते हैं कि पाठक अपनी बोलचाल की भाषा में कैसी भी हिंदी बोलें पर उनका शब्द भंडार व वाक्य विन्यास सही रहे। हमें उम्मीद है इस सफ़र में साथ जुड़कर अध्यापक बहुत कुछ नई जानकारी देंगे।

इसी श्रंखला में हमने आमंत्रित किया है :

श्रीमती रूपम चौधरी

कॉन्वेंट ऑफ जीसस एंड मैरी

देहरादून

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