Top Menu

“लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है
जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है
तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन
गति, जीवन का सत्य चिरन्तन
धारा के शाश्वत प्रवाह में
इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है।”
साभार श्री द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

भारत की राष्ट्रीय भाषा हिंदी बहुत प्रयासों के बाद अपने शुद्ध रूप में आयी। आचार्य राम चंद्र शुक्ल और उनके समकालीन साहित्यकारों ने बहुत मनन- चिंतन करने के बाद इसका मानक रूप बनाया। हमारी सभ्यता, संस्कृति और आदर्शों के पीछे हिंदी का योगदान बहुत है। शुद्ध हिंदी बोली और लिखी जाए, ऐसा देश के नागरिकों द्वारा हरसंभव प्रयास किया जाना चाहिए।

जब तक हम प्रत्येक परिवार को हिंदी के विकास में योगदान देने के लिए प्रेरित नहीं करते तब तक हिंदी उपेक्षित सी रहेगी।सरकारी प्रयासों में सिर्फ़ हिंदी का बख़ूबी उपयोग और प्रचार मीडिया के हर माध्यम से होना चाहिए बाक़ी सब देशवासी ख़ुद ही अपना लेंगे। मुश्किल तो यह है कि देश के अफ़सरान आज भी बाबू हैं। बाबुडम इतनी रग-रग में समा गयी है कि माहौल अंग्रेज़ीयत से गरमाया रहता है।

विद्यालयों में आज भी बहुत प्रयास किया जाता है कि हिंदी का प्रयोग जीवित रहे। हम सब ही इस बात से सहमत होंगे कि जितनी कविताएँ, कहानियाँ, लेख, विद्यार्थी छठी से दसवीं तक याद कर लेता है वह उसे जीवन पर्यन्त याद रहती हैं। जब कभी वह भाषण देता है वहीं उसका आज तक का पठन-पाठन साफ़ दिखायी दे जाता है। हमारी सभी राजनीतिक पार्टियाँ इस बात से अवगत हैं कि नेताओं द्वारा दिए गए भाषण देश के गॉंव- गॉंव की जनता तक पहुँचने का सशक्त माध्यम है इसीलिए हिंदी में ही देना चाहिए। इन्हीं मंचों से देश के नेता नियत हो जाते हैं। इसलिए यदि नेतृत्व करना है तो हिंदी पढ़िए,बोलिए और भाषण कला में दक्ष बनिए।

हमारे विद्यालयों(केन्द्रीय) में उच्चस्तरीय शिक्षा को ध्यान में रखते हुए प्रथम शिक्षा का माध्यम अंग्रेज़ी रखा जाता है और भाषा ज्ञान के तहत हिंदी को द्वितीय दर्जा दिया जाता है। विद्यालयों में हिंदी ज्ञान सिर्फ़ भाषा ज्ञान तक ही सीमित है जबकि अन्य विषय अंग्रेज़ी में पढ़ाए जाते हैं। यह हमारी भारतीय ‘दासता की मानसिकता’ सभी क्षेत्रों में दिखती है कि हम भविष्य सुधारने के लिए अपने आज का आनंद उपेक्षित रखते हैं। भारत में बच्चों की मातृभाषा हिंदी है या क्षेत्रीय बोलियाँ, पर उसे बचपन से ही अंग्रेज़ी का ज्ञान देने में अभिभावक कोई कसर नहीं छोड़ते क्योंकि सब ही चाहते हैं कि प्रथम कक्षा तक पहुँचते-पहुँचते बच्चा फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलना सीख जाए। यहीं से बाल मन में द्वन्द्व शुरू हो जाता है। ना वह घर में अंग्रेज़ी का माहौल पा रहा है ना आस-पड़ोस में, पर माता-पिता की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हिंदी से भी परहेज़ करना शुरू कर देता है। कम से कम पहले पॉंच वर्ष हम अपनी ही भाषा में शिक्षा दें और उसे नैतिक जीवन मूल्य सिखाएँ तो देश का भला होगा। बच्चा स्वयं ही हिन्दी की शब्दावली में इतना रच-बस जाएगा कि बाद में उसे सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। हाँ, देश का माहौल इस विचारधारा को बढ़ावा नहीं देता। इसीलिए सरकारी और प्राइवेट स्कूलिंग में कहीं कोई तालमेल दिखायी नहीं देता। प्राइवेट विद्यालय मनमानी माँगें रखते हैं और अभिभावक उनकी अपेक्षाएँ पूरी करते हैं। इसी बीच बच्चों की स्वाभाविक अभिव्यक्तियों का गला घुट जाता है। कवि, कलाकार और साहित्यकार बन सकने वाला बालक इन्जीनियर और बिजनेस की पढ़ाई में झोंक दिया जाता है।

कुछ ही समय पूर्व का मेरा अनुभव है एक बिज़नेस मैनज्मेंट संस्थान में मेरा जाना हुआ। प्राध्यापक से लेकर छात्र सब अंग्रेज़ी में ही बात कर रहे थे। सब तरफ़ टूटी-फूटी किताबी अंग्रेज़ी। मुझे साफ़ महसूस हो रहा था कि ग्लोबलाइजेशन से सहमे ये बच्चे अनावश्यक अंग्रेज़ी के बोझ के तले-दबे बोल रहे हैं बस। सही ग़लत की समझ से परे। काश! हम इस वहम को मिटा पाते कि अंग्रेज़ी आपको आधुनिक व्यक्ति की संज्ञा देती है और हिन्दी नहीं, यदि ऐसा होता तो देश की हिन्दी फिल्में आइ ट्यून, एमेजॉन, नेटफ्लिक्स में धूम ना मचा रही होतीं साथ ही पूरे गल्फ देशों में इनका संगीत घर-घर में ना बज रहा होता। देश में सबसे ज़्यादा चलने-देखे जाने वाले हिंदी चैनल दूर दर्शन की दुनिया में जादू ना दिखा रहे होते। रेडिओ पर आर जे अपनी धूम ना मचा रहे होते। असल में वो अच्छा इसीलिए बोल पाते हैं क्यूँकि अपनी मातृभाषा में बेबाक़ बोलते हैं। सोच समझकर विदेशी भाषा में नहीं बोलते। उनकी यही बेबाक़ी और बिन्दास बोली हमारे दिलों को छू जाती है।

हिंदी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है इसीलिए अन्य भाषाओं के सरलता से समझे जाने वाले शब्दों को सहज ही स्वीकार लेती है। आज की सभी विधाएँ विदेशी शब्दों को स्वीकार रही हैं। इसका ये अर्थ नहीं कि हिंदी का अपमान हो रहा है इसका अर्थ है कि जन साधारण तक बात पूरी तरह सरलता से पहुँचायी जा सके।

भारतीय होते हुए हिंदी का ज्ञान होना परम आवश्यक है। यह देश हित में है और समाज के हित में भी है।

बहुत वर्ष पहले श्री भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कह गए थे-
“निज भाषा उन्नति अहै,सब उत्पत्ति को मूल।
बिन निज भाषा ग्यान के मिटे न उर का शूल।।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि,सब गुन होत प्रवीन।
पै निज भाषा ग्यान बिन,रहत हीन के हीन।।”

Comments

comments

About The Author

बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Powered By Indic IME
Close