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बनारस:
यह शहर –
इसे अचानक देखो
अद्भुत है इसकी बनावट
यह आधा जल में है
आधा मंत्र में है
आधा फूल में है
आधा शव में
आधा नींद में है
आधा शंख में है
अगर ध्यान से देखो
तो यह आधा है
और आधा नहीं भी है

(साभार श्री केदार नाथ सिंह)

मत्स्य पुराण में शिव कहते हैं-

बनारस में मेरी हमेशा से उपस्थिति रही है। जहाँ आकर लोगों को मुक्ति का साधन मिलेगा। किसी ने अगर हज़ारों सालों से भी पाप का संचय किया होगा, वो पाप इस धरती पर आकर समाप्त हो जाएगा। श्री केदार नाथ सिंह जी ने इस कविता में भी इसी रहस्य को दर्शाया है।’यह आधा है और आधा नहीं भी है’-शिव का महात्म क्या है? विष पीने वाले मंगलकारी शिव संहारक कैसे हो सकते हैं?

बनारस की भौगोलिक स्थिति आज से दस हज़ार वर्ष पहले गंगा के किनारे बसी सभ्यताओं के लिए बहुत आकर्षण का केंद्र थी। पर्वतों से उतरी गंगा की उपस्थिति और मृत्यु का साक्षात्कार शिवत्व की धारणा मज़बूत करने लगा। मृत्यु और मोक्ष का प्रश्न लोगों के सम्मुख तब भी था, धीरे-धीरे ज्ञानी-ध्यानियों ने इस धरती को मुक्ति के उपयुक्त समझा। उस समय के उत्तर भारत का विस्तार गंगा के तटों पर ही माना जाता है।

वैदिक काल से भी पहले काशी शैव धर्म की उद्गमस्थली थी।यहाँ रहनेवाले अजीविका, पाशुपत और अनेक द्रविड़ सम्प्रदाय के लोग शिव को आदि गुरु मानते थे, शायद प्रस्तर-काल से भी पहले हिम-काल से। ध्यान दें शिव की फ़ोटो में हम आज भी हिमकाल का ही चित्रण देखते हैं। हिमालय से लेकर गंगा की घाटियों तक ,वहाँ से नर्मदा, महानदी के घाटों तक शिव की ही पूजा-अर्चना की जाती थी। उस समय शिव को पर्वतों का स्वामी और गंगापति या गंगाधर भी मानते थे। इसीलिए वरुणा और असि धाराओं के मिलन से बनी गंगा के चंद्राकार घाट पर शिव नगरी काशी बसायी गयी क्योंकि शिव के मस्तक पर अर्ध चन्द्र और ज्ञान की अविरल गंगा आज भी परिकल्पित है। काशी सदा से ज्ञान पीठ रही, रामानन्द, कबीर जैसे महान गुरुओं और साधु संतों की नगरी रही। यहाँ हिंदू ही नहीं बौद्धधर्म, जैन धर्म के अनुयाइयों का भी सदैव आवास रहा। आज भी शिव-शक्ति की आराधना घर-घर में होती है। सिद्धों, नाथों की नगरी, अवधूतों की नगरी का मिला-जुला रूप ही काशी को महाश्मशान की संज्ञा देता है।

जीवन जीना एक कला है, मृत्यु शाश्वत सत्य है तो क्यूँ ना इस मृत्यु के भय पर विजय पायी जाए।

पुराणों के अनुसार सिर्फ़ मत्स्य पुराण, स्कन्द पुराण और गरूण पुराण में काशी में मृत्यु से मुक्ति का उल्लेख मिलता है।
उनमें ये भी लिखा है कि सिर्फ़ नाम स्मरण से ही क्षुद्र पापी को भी मुक्ति मिल सकती है। जीवन मुक्ति के लिए किसी बलि, तंत्र -मंत्र या चढ़ावे की आवश्यकता नहीं है। वेदों की तरह पुराण बहुत प्रामाणिक भगवान की वाणी नहीं माने जाते। ये स्मृतियों पर आधारित हैं जिन्हें लोगों ने आम जनता तक उनकी भाषा में भगवान का संदेश पहुँचाने के लिए अपने मन की कल्पना के साथ रचा। सभी धर्मों और पंथों के अनुसार जब तक मनुष्य अपने जीवन पर अध्यात्म का अनुशासन नहीं लगाएगा, पुराने संस्कारों को नहीं तोड़ेगा, तब तक कोई मुक्ति कहीं भी सम्भव नहीं है। स्वयं को पहचानने की यात्रा ही आध्यात्मिक यात्रा है। जब हम अपने अहंकार पर विजय पाएँगे तभी विनयशील होंगे, जब विनम्र होंगे तब स्वयं को ईश्वर के निकट पाएँगे।हमारे द्वारा किए गए किसी कर्म को हम अधिकारपूर्ण अपना नहीं कह सकते क्यूँकि उस समय उस पर बहुत सी परिस्थितियाँ, मनोवेग काम करते हैं। जब कर्म भी हमारा नहीं तब ‘मैं’ का अहंकार कैसा?

बस यही पहचान मुक्ति की राह है ——-

काशी क्षेत्र हम मन में भी जगा सकते हैं। उसके लिए वाराणसी जाने की आवश्यकता नहीं है। काशी का सही अर्थ है प्रकाश- जब मन प्रकाशित तब आत्मा प्रकाशित और मन प्रकाशित सिर्फ़ अध्यात्म से ही संभव है। किसी संत , महात्मा, दरवेश या गुरु की छत्रछाया भी आपको काशी ज्ञान दे सकती है………………

एक प्रसिद्ध गुरुजी से किसी ने पूछा आध्यात्मिक उत्कर्ष(spiritual ecstasy) क्या है? उन्होंने जवाब दिया,हम सबके भीतर जैविक ऊर्जा (organic energy)अर्थात प्राण हैं।इस ऊर्जा पर हमारे कर्मों की छाप पड़ती जाती है।यहाँ कर्म का अर्थ है आपने किसी ख़ास परिस्थिति में क्या प्रतिक्रिया दी? आप शारीरिक,मानसिक,भावुक और ओजस्वी प्रतिक्रिया कर सकते हैं। ये कर्म आप जीवन के हर पल, हर क्षण कर रहे हैं ।उनका बचा हुआ प्रभाव आपके अवचेतन मन(sub conscious mind )पर गहराता जा रहा है।जब आप सो रहे हैं तब भी, जब आप जाग रहे है तब भी। कुछ कर्म संस्कार जन्य(inherited) भी होते हैं। अध्यात्म की राह अपनाने से इन्हीं कर्मों और संस्कारों से छूटना ही आत्मा की जागृतिजन्य मुक्ति है। जो आप अचेतन मन से प्रयास करके छुड़वा सकते हैं। शरीर से सिर्फ़ आत्मा निकलती है यदि इस प्राण ऊर्जा से इस जन्म के संस्कारों के निशान यहीं छूट जाएँ…………. बस यही जीवन की परम उपलब्धि है ।

Absolutely nothing to carry forward…………………Amen!

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बचपन से प्रकृति की गोद में पली-बढ़ी श्रद्धा बक्शी कवि और कलाकार पिता की कलाकृतियों और कविताओं में रमी रहीं। साहित्य में प्रेम सहज ही जागृत हो गया। अभिरुचि इतनी बढ़ी कि विद्यालय में पढ़ाने लगीं। छात्रों से आत्मीयता इतनी बढ़ी कि भावी पीढ़ी अपना भविष्य लगने लगी। फ़ौजी पति ने हमेशा उत्साह बढ़ाया और भरपूर सहयोग दिया। लिखने का शौक़ विरासत में मिला जो नए कलेवर में आपके सामने है......

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